रविवार, 15 अक्तूबर 2017

चिल्लर सरीखे दिन - मालिनी गौतम

सृजन की अनिवार्यता लिये बोध की जमीन पर चिंतन की वर्तमानता को चिह्नित करते हुए, समकालीन हिंदी कविता की महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर मालिनी गौतम का नवगीत संग्रह “चिल्लर सरीखे दिन” प्रकाशित होकर आया है। ग़ज़ल और मुक्तछंद कविता में महत्त्वपूर्ण स्थान बना चुकी मालिनी का यह प्रथम नवगीत संग्रह है। विषय-चयन और कहन के अंदाज से कहीं भी नहीं लगा कि यह उनका पहला नवगीत संग्रह है। कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने की शक्ति लिये, नवीन बिम्बों एवं प्रतीकों से परिपूर्ण यह संग्रह काव्यात्मकता का विस्तृत कोलाज रचता है। नवगीत की नवता में मालिनी गौतम वर्तमान समय की मुख्य चिंताओं को शब्द-बद्ध करती, अतीत से संवाद और भविष्य के लिये संभावनाओं का मार्ग तलाशती प्रतीत होती है। काव्य की अन्य विधाओं में नवगीत की लोकप्रियता इधर के दिनों में बहुत बढ़ी है। इस रास्ते बिम्बों के टकटके प्रयोग आकर्षित करते हैं तो प्रतीकों के चयन सहज ही प्रभावित। समय को अपने हिसाब से परखने में कवयित्री का अपना तरीका और अपने मुहावरे हैं जिसमे वह सफल ही नहीं होती, नवीन प्रतिमान भी रचती दिखाई देती है। यह कहना कि एक रचनाकार की हैशियत से कवयित्री ने अपने दायित्वबोध का सुन्दर तरीके से निर्वहन किया है, “चिल्लर सरीखे दिन” के लिये अतियुक्ति न होगी।

यह सच है कि जहाँ बात दायित्वबोध की आती है वहाँ हमारा सामयिक समाज स्वयं को घिरा अधिक पाता है, स्वतंत्र कम। बावजूद इसके समय अपनी गाथाएँ अपने अनुसार लिख रहा है। समाज के नुमाइंदे अपने मनहूस कारनामों के जरिये गाथाओं को व्यथाओं का रूप देने में लगे हैं। अपने बनावट और बुनावट में ये ऐसे नुमाइंदे हैं जो हर क्षेत्र में बढ़-चढ़ प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। प्रतिनिधित्व के आवरण में एक गजब का खेल खेला जा रहा है बहुरूपियों द्वारा, जिनका उद्देश्य देश-समाज को उन्नति के मार्ग पर बढ़ते देना नहीं अवनति के खंदक में धकेल कर मटियामेट कर देना है। कवयित्री के शब्दों के साथ सहमति जताते हुए यह कहा जा सकता है कि “चोर-लुटेरों के हाथों में/ राम-नाम की माला है/ भोले-भाले भक्तों को/ अपने साँचों में ढाला है।” आगत की फसलें इनकी निगहबानी में जीवन-यापन कर रही हैं, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। यह भी सही है कि इनकी जड़ें परिवेश में गहरे जमी हैं। सम्पूर्ण योग्यता के साथ ये अपनी उपस्थिति में “कहीं त्रिभुज के कोण बने हैं/ कहीं शून्य में भटक रहे हैं/ खींच लकीरें गुणा-भाग की/ अपनों को ही झटक रहे हैं.../ पहन मुखौटे तरह-तरह के/ युग के रावण घूम रहे हैं” जिनकी उत्पत्ति मात्र लंका को तबाह करने के लिये ही न होकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे सम्पूर्ण संरचना को ख़ाक कर देने के लिये हुई है। ऐसों के पहचान में कवयित्री की यह अभिव्यक्ति तर्कसंगत प्रतीत होती है “बन्दनवारों ने/ स्वागत में/ दिए द्वार जब खोल/ चोर-लुटेरे/ घुस आये/ पहने पाहुन का चोल/ मुँह में राम बगल में खंजर/ दिखते बगुला श्वेत।” बगुलों का श्वेत्पन और भी अधिक धवल हुआ है। उजालों के बिसात पर ही अंधेरों की डगर बनाई गयी है।


अँधेरे डगर पर उजालों का प्रवेश निषेध हो चुका है। अँधेरे के स्वागत और उजाले के विरोध में “मानपत्र ने/ पढ़े कसीदे/ छलनाओं के/ परचे कैद हुए/ तालों में/ इच्छाओं के” जिसकी वजह से सम्पूर्ण पीढ़ी पर गुमनामी का खतरा मडराने लगा है। समाज के सभी दिशाओं में मौन का साम्राज्य बढने लगा है। बढ़ते रहने की प्रवृत्ति में “थाल सजाये/ इच्छाओं के/ करते मंत्रोच्चार/ हवन कुण्ड में/ धधक रहा है/ आवेगों के ज्वार।” इन्हीं आवेगों के केंद्र में रहते हुए एक पल के लिये कवयित्री चाहती है कि “गूँगे शब्दों को कुछ/ तुतलाते-से स्वर दूँ।” लेकिन इस सबसे कठिन दौर में बचपन के लिये कहीं कोई स्थान नहीं बचा है। शोषितों की श्रेणी में बचपन सबसे आगे है। कहीं गहरे यथार्थ में यह ऐसा दौर है जहाँ “गमगीनी के घट भरतीं/ आँखें बेचारी/ मुस्कानों के नाम/ हुए हैं फ़तवे ज़ारी/ यादों के सरवर में/ प्यासी आस मरी।” मरी हुई आस को विश्वास की खुराक उपलब्ध कर परिवेश को सुरक्षित रखने के लिये कवियों में बचपना बचा है तो कविता बची है लेकिन समाज को साकार दिशा देने के लिये तुतलाते शब्दों के स्थान पर गरजते शब्दों की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है।

समकालीन परिवेश का परिदृश्य भयावह हो उठा है। हालाँकि कवयित्री चाहती है कि इस भयानक परिदृश्य में भी मानवीय राहों का अन्वेषण जारी रहे लेकिन समय का यथार्थ कहीं गहरे में उसे कुरेद्ता है। यह भी इस बदले और लगभग स्थापित यथार्थ का एक बड़ा सच है कि जिसके पास कुछ भी नहीं है वह परिवर्तन का दम भरते समय के सकारात्मक होने का अवसर देख रहा है और दूसरी तरफ जिसके पास सब कुछ है ऐसा शीर्ष नेतृत्व स्वयं पर “हत्या का अभियोग” लगाये षड्यंत्रकारी सिद्ध हो चुका है। षड्यंत्रकारी इसलिये भी क्योंकि आवश्यक विकास के जो भी संसाधन हैं वे सब-के-सब बड़े और समर्थ लोगों की निगहबानी में कैद हो चुके हैं। यही वजह है कि—“सुख के पौधे/ पनप न पाए/ अंधियारों में/ धूप रोकते/ दुःख के जाले/ गलियारों में/ इच्छाओं के अमरबेल पर/ सूखेपन का रोग।/ मोर-मुकुट/ चिंता के जब/ खुशियों ने पहने/ आहात मुस्कानों/ पर थे/ चुप्पी के गहने/ चाहत की उजड़ी मज़ार पर/ लाचारी के भोग।/ दहशत के/ बेताल टँगे/ मन की डाली पर/ आशंका की/ बेल चढ़ी/ सच की जाली पर/ अनुबंधों के भी सूली पर/ चढ़ने के संजोग।” यथार्थतः ऐसे संजोग पर समय के साये में समाज के बदलने का अमानवीय दृश्य हमारा इंतज़ार कर रहा है।

महानगरीय परिवेश की वास्तविकता उसी इंतज़ार का प्रतिफल है। नवगीतकारों का मन महानगरीय परिवेश में कभी नहीं रमा। यदि परिस्थितियों के वशीभूत होकर मजबूरन इनका आना हुआ भी तो सिद्धांत से लेकर व्यवहार तक यह उनके लिये किसी छलावा से कम नहीं रहा। गाँव के फैले और संवादी वातावरण में जीने के अभ्यस्त हृदय शहरों के एकांत और व्यस्त माहौल से तादात्म्य बिठाने में असफल रहे। गंवई परिवेश में जहाँ कभी वे ‘आम-बेला-नीम’ की विद्यमानता में जीवन का आनंद लेते थे वहीं अब शहरी परिवेश में उनके सामने “कार-कोठी, मॉल/ मल्टीप्लेक्स की भरमार है/ शोखियों से छलछलाता/ बार और बाज़ार है।” अपनी प्रभावता में ये ऐसे बाज़ार हैं जहाँ आशाओं-आकांक्षाओं की अमरबेल निरंतर बढ़ती जा रही है। युवाओं की एक टोली यहीं अपने स्वप्नों का कारवां लिये “झुके कन्धों पर उठाए/ रेशमी कुछ ख्वाब/ ढूँढता वह डिग्रियों से/ एक अदना जॉब” तो यहीं कहीं “गलियों-गलियों/ भटक रहे हैं/ धूप-छाँव के टुकडे/ लिये तराजू तोल रहे हैं/ दुनिया के सुख दुखड़े/ थके-थके दिन के माथे पर/ हवा मल रही बाम/ विंड चैम/ चिंता के बजते/ दरवाज़ों के आगे/ बैसाखी थामें/ रिश्तों के/ कच्चे-कच्चे धागे/ नेमप्लेट पर अटक गये हैं/ मौसम के पैगाम।” अब यह भी कि जहाँ नेमप्लेट के मार्फ़त मौसम अपने रंग दिखा रहे हों वहाँ कोई गंवई परिवेश का अभ्यस्त हृदय भला स्वयं को कैसे परिवर्तित कर उस वातावरण के लिये सुलभ बना ले? गाँव में व्यक्ति के अनुसार मौसम नहीं मौसम के अनुसार व्यक्ति के बदलने का उत्सव वर्तमान होता है।

इसीलिये वे यहाँ की भयावहता भरे परिवेश में स्वयं को पिंजरे में बंद तोते के समान समझते रहे। संकरी गलियां, ऊंचे मकान, व्यस्त सड़कें, घर-परिवार से दूर होने पर वर्तमान हो उठा अकेलापन जैसे इन्हें विचलित करता रहा है। मौका मिला नहीं कि गाँव रुपी आसमान में उड़ जाना चाहते है। गाँव एक तरह से इनके लिये खुला आसमान है जो इनके होने की अस्तित्व का बोध कराता रहा है। गाँव की स्मृतियाँ इनके लिये अब भी इतने अपनत्व से परिपूर्ण रही हैं कि वहाँ लौटना ही नहीं चाहते अपितु अपना सम्पूर्ण जीवन ही अर्पण कर देना चाहते हैं। इसलिये भी क्योंकि खेती-किसानी में व्यस्त जीवन की परिधि में ‘एक मधुर संवाद’ की सम्पूर्णता यहाँ अब भी देखी जा सकती है-
एक मधुर संवाद कर रहे/ धरती और किसान।
नेह-भरे/ हाथों ने जब/ माटी के चरण छुए
कुछ सपने/ आँखों में उगकर/ सुर्ख पलाश हुए
गदराए बादल ने बाँधा/ ऊँचा एक मचान।
बैलों के/ घुँघरू खनकाते/ आशाओं के गीत
धरती के/ सीने से लगकर/ बीज निभाते प्रीत
मेड़ों पर बैठे पंछी भी/ जाते सुख-दुःख जान
नयी-नवेली/ दुल्हन-सी जब/ धरती हरी हुई
खुशियों के/ दाने खनके/ आँखें थी भरी हुई
अंगड़ाई ले मचल गये/ जाने कितने अरमान।”

इन अरमानों में गँवई परिवेश की सोंधी खुशबू जन-जीवन के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। उत्सवी वातावरण की-सी वर्तमानता तमाम प्रकार की विसंगतियों में भी दिखाई देती है। यह सच है कि गाँव में जीवनोपयोगी बहुत-सी चीजों का अभाव अब भी बना हुआ है, अब भी बहुत-सी जड़-परम्पराएँ आम जन-जीवन को हाशिए पर धकेले हुए हैं, बावजूद इसके वहाँ की जीवटता पर कवि-हृदय मुग्ध रहता है। इधर परिवर्तन के नवीन ढांचों को देखने के बाद थोड़ी निराशा जरूर हुई है। विकास के अंधाधुंध प्रयोग का असर ग्रामीण-संस्कृति पर भरपूर हुआ है। यह आज के गाँव का यथार्थ है कि जिन पेड़-पौधों, नदी-तालाब, खेत-खलिहान, ताल-तलैया, मेड-डाँड, कच्ची-पक्की सड़कों आदि की यादों को आधार बनाकर स्मृतियों को अलंकृत किया जाता था आज वे अपना स्वरूप खो बैठे हैं। कोयल, भौरे, कौवे, मुर्गे, सुकुलाइन पंछी आदि को लेकर यश-अपयश के जो कयास लगाए जाते थे आज उनके तरीके भी बदल गये और उनकी विद्यमानता भी गहरे में प्रभावित हुई है। गाँव के अतीत से वर्तमान के यथार्थ का जब सामना होता है तो एक संवेदनशील व्यक्तित्व होने के नाते कवयित्री को “जीवन निकल गया” की यथार्थता में यह आभास होना आवश्यक हो जाता है कि-
खाने के हिसाब में/ जीवन निकल गया।
गाँव हुए अब खाली-खाली/ मौन हो गये कोयल-कागा
बगल दबाये झोला-टंटा/ सारा गाँव शहर को भागा
रिश्ते-नातों को लालच का/ अजगर निगल गया

देख सुबह की रोनी सूरत/ चिड़ियों के चेहरे कुम्हलाये
दूर उड़ानें भरने को वे/ तत्पर थीं डैने फैलाए
कुहरे ने ढँक दिया गगन को/ मौसम बदल गया।”

मौसम बदलने की हकीकत में वैश्वीकरण की अवधारणा ने इधर और भी अधिक सशंकित किया है। समाज में जीवन-यापन की शैली में बेतरतीब परिवर्तन चिह्नित की गयी है। एक तरफ जहाँ मॉल-संस्कृति में पड़कर जीवन विविधरंगी दिखाई देने लगा है वहीँ दूसरी तरफ “गालों पर पड़ते हैं/ लाचारी के चाँटे/ खुशियों के दामन में/ विपदाओं के काँटें” एक तरफ समस्त मानवीय संभावनाओं को ताक पर रख कर व्यापारी बने समुदाय में हजारों-करोड़ों की बोली लगाई जा रही है, लूट-खसोट की गोटियाँ बिछा कर षड्यंत्रों की दुनिया बसाई जा रही हैं वहीं “फुटपाथों के/ प्रेक्षागृह में/ दुःख का नर्तन/ कोलाहल का/ सन्नाटों में/ स्वर परिवर्तन/ उम्मीदों के चूल्हों में/ अब धुआँ नहीं है।” यह निश्चित ही ऐसा दौर है जिसमें जनसामान्य की उम्मीदें मरी हैं। जब उम्मीदें मरती हैं सृजन की अनिवार्यता और अधिक महसूस की जाती है। इसलिये भी क्योंकि यहीं से परिवेश नवीन आकार ग्रहण करना प्रारंभ करता है। कवि कविता की निष्पक्षता में समय का पारखी तो होता ही है उसे सही अकार देने का एक विशेष माध्यम भी होता है। यह संग्रह निश्चित ही ऐसा माध्यम बनने की भूमिका में है। कवयित्री अपनी भूमिका में विसंगतियों से परिपूर्ण समाज और समय की फटी हुई तस्वीर में “ऊसर धरती पर/ चाहत के बीज उगा दूँ” के माध्यम से “कुछ पैबंद लगा दूँ” का सफल प्रयास करती दिखाई देती है-
एक उदासी/ खाट डालकर/ कब से सोई
खाली कोनों में/ खुशियों की/ चिड़िया रोई
खालीपन को झाड़-पोंछकर/ आज सजा दूँ
मुँह फेरे/ बिस्तर के/ कोने पर बैठे हैं
रिश्ते कुछ/ उलझे-उलझे/ ऐंठे-ऐंठे हैं
फटे हुए रिश्तों में/ कुछ पैबंद लगा दूँ।
संवादों के पुल/ चुप्पी से/ जूझ रहे हैं
बातचीत के/ बंद सिरों को/ बूझ रहे हैं
धुले-धुले शब्दों का/ इक तोरण लटका दूँ।”

संवादों की उपलब्धता का सूत्र खोजना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। इस जरूरत को साकार रूप देना ही कवि की जिम्मेदारी है। ऐसे समय में जब कवि की जिम्मेदारियाँ कुछ अधिक बढ़ जाती हैं और उसके हृदय में यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक हो जाता है कि “प्यास की इस कीच को/ क्या हम कभी कुछ धो सकेंगे।” धोने के लिये कदम बढ़ाने की आवश्यकता होती है और यह आवश्यकता तभी प्रतिफलित हो सकती है जब जन-जन के बीच संवाद के माध्यम तलाशे जाएँ। जबकि आज की स्थिति में लोग अपने मौन तोड़ने के लिये राजी नहीं हैं। बोल के बीच से होकर निकलने वाली क्रांति की संभावनाएँ चुप होकर परिवेश में बिखर रही संवादी मूल्यों को और अधिक बिखरने के लिये आमंत्रित कर रही हैं। कवयित्री का यह कहना “चुप की भट्टी पर सिंक-सिंक कर/ झुलस गए संवाद चाहत के।” कवयित्री का प्रयास चाहत के झुलसे हुए संवाद को “जालों में उलझी/ एक पुरानी याद” के सहारे संवादी संभावनाओं को तरजीह देना तो है ही “पुरानी यादों के माध्यम से नवीन अवसरों को बढ़ाना भी है।

यह कहना कि कविता का समकाल नवगीतों का है, ऐसे सजग कवि-कर्म से प्रमाणित होता है। यह संग्रह अपने विशिष्ट अर्थों में संवादों की मौनता में शब्दों का संस्कार है। मालिनी गौतम निश्चित ही अपनी भूमिका में समय-समाज को परिवर्तन की राह पर चलने के लिये ऊर्जा दे रही हैं। यह बात तब और भी अधिक प्रमाणित होती है जब हम इनके कविताओं से होकर गुजरते हैं। अभिव्यक्ति-माध्यम में शब्दों द्वारा संवेदनाओं का चित्रांकन करना मालिनी को आता है। वह जानती हैं कि समय के यथार्थ को शब्द-रूप देकर मानवीय जिजीविषा का अंश बना देना अपने आस-पास के मुहावरों में ही संभव है इसलिये वे काव्य-सौंदर्य के लिये उधार के तरीकों का स्तेमाल न कर स्वयं के हृदय में मचलने वाले भावों एवं संवेदनाओं को पकड़ने का प्रयास करती हैं। इस नवगीत संग्रह में आप पायेंगे कि जीवन-समाज उनकी काव्य-संवेदना के साथ-साथ चलता दिखाई देता है। यही इनके कवि-कर्म की सफलता है।
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नवगीत संग्रह-चिल्लर सरीखे दिन, रचनाकार- मालिनी गौतम प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर गीतों की संख्या-५५, मूल्य- १०० रू मात्र, पृष्ठ संख्या-९६, समीक्षक-अनिल कुमार पाण्डेय


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