शनिवार, 31 दिसंबर 2016

अम्मा रहती गाँव में - प्रदीप शुक्ल

नवगीत, गीत विधा का ही नवीन रूप है। प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ गीत और नवगीत में पिता-पुत्र का सम्बन्ध मानते हुए कहते हैं कि, “प्रत्येक नवगीत गीत होता है किन्तु प्रत्येक गीत नवगीत नहीं होता” नवगीत का समकालीन यथार्थबोध उसे गीत से अलगाता है। ग़ज़ल की तरह आज यह हिंदी साहित्य की एक लोकप्रिय विधा बन चुकी है। वर्तमान कविता समय में कई रचनाकार नवगीत को अपनाकर अपनी अभिव्यक्ति को स्वर दे रहे हैं और उसकी परम्परा को आगे ले जा रहे हैं। बहुमुखी प्रतिभासंपन्न डॉ प्रदीप शुक्ल भी उनमें से एक हैं। ‘अम्मा रहतीं गाँव में’ उनका पहला नवगीत संग्रह है जिसमें उनके ५१ नवगीत संग्रहीत हैं।

संग्रह का शीर्षक नवगीत ‘अम्मा रहतीं गाँव में’ में वह गाँव में रहने वाली माँ के प्रति अमूमन बरती जाने वाली कठोर सच्चाई को भावप्रवण तरीके से प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं – ‘छुटका रहता/ है विदेश में/ मंझला बहू के पाँव में/ बड़का रहता/ रजधानी में/ अम्मा रहतीं गाँव में’। यह घनीभूत संवेदना से परिपूर्ण एक मार्मिक कविता है। इस संग्रह में माँ (अम्मा) पर कई नवगीत हैं जिनमें उसके कई रूप देखने को मिलते हैं – ‘कई बार/ घर में अम्मा को/ हमने दुर्गा बनते देखा’। निश्चित ही कवि उसे एक अबला के रूप में नहीं बल्कि स्त्रीशक्ति के रूप में देखता है।

इस संग्रह के नवगीतों की भाषा आम जन की समझ में आने वाली आमफहम भाषा है जिसमें बड़ी स्वाभाविकता है। इन नवगीतों को पढ़ते हुए साफ़ पता चलता है कि कवि अपनी जड़ों से गहरे तक जुड़ा हुआ है। इन्हें पढ़ते हुए लय और प्रवाह एक साथ गतिमान रहता है कहीं कोई बाधा नहीं। कथ्य में भाव और विचार के स्पष्ट सम्प्रेषण में यह भाषा बहुत मददगार सिद्ध हुई है। भाषा को लेकर कोई आडम्बर डॉ शुक्ल के नवगीतों में देखने को नहीं मिलता। वह जरुरत के हिसाब से इन्टरनेट की भाषा को भी बहुत सहज तरीके से लेकर नवगीतों में लेकर आये हैं। संग्रह में ‘पाती तुम्हें भेजी हुई है’ और ‘इक्कीसवी सदी की लोरी’ जैसे नवगीत ऐसे ही कुछ नवीन प्रयोगों के बढ़िया उदाहरण हैं।

मनुष्य के जीवन में संचार क्रांति और बाजारवाद की घुसपैठ ने किस तरह आँखों के पानी को सोख लिया है ‘ओ मेरे मोबाइल’ शीर्षक नवगीत में उसका चित्रण देखने को मिलता है इस बात को उठाते हुए वह इस नवगीत में लिखते हैं – ‘छूट गया/ हँसना बतियाना/ भूल गया/ कहकहे लगाना/ ओ मेरे मोबाइल !/ तूने कैसा गज़ब किया’। ‘नए साल में नया कलेंडर’ शीर्षक नवगीत में वह नए साल की खुशियों की विडंबना को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं – ‘नए साल में/ नया कलेन्डर/ लेकिन दुःख हैं वही पुराने/ पंचायत में/ फिर से होगा/ वही पुराना हल्ला-गुल्ला/ माननीय को कैंटीन में/ चालिस पैसे का रसगुल्ला/ चालिस रुपयों में/ लायेगा/ मँगरू कुछ अरहर के दाने’

ऐसे में तमाम नए साल, साल दर साल निकलते चले गये लेकिन स्थिति जस की तस बनी रही। माननीयों को अपनी सुख-सुविधाओं से फुर्सत नहीं कि वह आम जन की तकलीफों को देख-सुन सकें। सरकारें आती हैं-जाती हैं लेकिन गाँव का आम जन वहीँ का वहीँ रहता है। ऐसे में कविता का उसके पास जाना इस महाकाव्य पीड़ा का भाषा में मरहम लगाने से कम नहीं कहा जा सकता। कवि कहता है –
‘दिए के पास/ चल कर/ पूछिए तो हाल कैसा है’

उसे पता है मुक्ति की यह राह इतनी आसान नहीं इसलिए वह अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हुए सबको साथ लेकर सही रास्ता बनाने का इच्छुक दिखता है –
‘अच्छे दिन तो हमको/ खुद संवार कर लाने होंगें/ और उन्हें लाने के खातिर/ मिलकर कदम बढ़ाने होंगें/ लेकिन/ पथ में काँटों का/ जंगल बिखरा है/..../रुक कर/ सोचो, आगे/ खतरा ही खतरा है’

कवि की यही जनवादी सौन्दर्यदृष्टि यथार्थ की भूमि पर विकसित होकर समाज की नब्ज़ पकड़ता है और पाठक के मन में तमाम सवालों को उठाकर संवाद स्थापित करने में सफ़ल होता है। राष्ट्रभाषा, देशकाल और पर्यावरण के प्रति कवि की चिंताएं प्रखर व्यंग्यदृष्टि के साथ सामने आती हैं। ‘अंधियारे में खोती हिंदी’, ‘बूढ़ा बरगद फिर हरियाया है’ शीर्षक नवगीत या फिर उदाहरण के लिए ‘अहा! क्या सुन्दर देश हमारा’ शीर्षक नवगीत से एक अंश दृष्टव्य है – ‘मानवता को/ भईय्या हमने/ पीट-पीट कर मारा/ अहा ! क्या सुन्दर देश हमारा’। वह कई जगह बड़े मज़े लेकर कविता करते नज़र आये हैं। जैसे कि ‘जय कन्हैया लाल की’ की धुन में बढ़ती महंगाई पर लिखा गया यह नवगीत – ‘जय हो महंगाई की/ ठुमक-ठुमक चाल की/ जय कन्हैया लाल की’ ऐसा व्यंग्य करने वाला कवि इस नवगीत के तुरंत बाद जब ‘खुदा जगाये तुम सबको’ जैसी मार्मिक कविता को नवगीत के शिल्प में लिखता है तो मन वाह के बाद आह किये बगैर नहीं रह पाता। समकालीन कविता के युवा कवि इन कविताओं को पढ़कर जान सकते हैं कि किस तरह कम शब्दों में अपनी बोली-बानी में बड़ी बात कही जाए।

ग्रामीण यथार्थ का रचनात्मक प्रतिबिम्बन प्रस्तुत करते हुए इनके कई नवगीत गाँव और गाँव के लोगों की फ़िक्र करते हैं। कवि आधुनिकता की आंधी से गाँव के प्राकृतिक जीवन को बचाए जाने का पक्षधर है। ‘अभी बहुत कुछ शीर्षक’ नवगीत की शुरुआती पंक्तियों से जुड़ें तो – ‘अभी नहीं/ पानी पहुँचा है नाव में/ अभी बहुत कुछ/ बचा हुआ है गाँव में’। यह फिर ‘ये शहर’ शीर्षक नवगीत को ही ले लें – ‘ये शहर/ जबरन घुसा जाता/ हमारे गाँव में’। इनकी कविताओं में आया ‘लोक’ बहुत जाना-पहचाना है और गाँव तथा शहर दोनों जगहों के परिवेशगत संघर्षों की बराबर पड़ताल करता है। बगैर किसी अतिरिक्त कलावादी प्रयास के इन कविताओं की रेंज एक बड़े कैनवास को अपने आप में समाहित किये हुए है।

डॉ शुक्ल के संग्रह के नवगीतों को पढ़ते हुए प्रेमचंद की कथाओं के तमाम पात्र अनायास ही हमारे सामने आकर खड़े हो जाते हैं मानो इनके माध्यम से वे अपनी पीड़ाओं का बयान प्रस्तुत कर रहे हों। सोचने वाली बात यह है कि आज भी यह पात्र जैसे के तैसे क्यों हैं ? उनकी स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन आ गया हो, ऐसा नहीं लगता। विकास के तमाम दावों की पोल खोलता यह संग्रह ऐसे कई प्रश्नों को पाठक के सामने उपस्थित करता चलता है।

इन नवगीतों में एक ओर युवामन की ऊर्जा, उमंग और विश्वास की ताज़गी है तो दूसरी ओर ललकार, चेतावनी, आह्वान और बेचैनी भी। एक ओर वयस्क मन के पके अनुभवों से निखरी सोच है, समय की विरूपता, क्रूरता और विद्रूपता का कथन है तो दूसरी ओर यथास्थितिवाद के खिलाफ उठे प्रतिरोध का सशक्त स्वर भी। इस युवा कवि की रचनात्मकता में सरलता, सहजता, तरलता और मौलिकता है। तो ‘अरे सुनो ! बन्दूक चलाओ/ अभी बचे हैं हम’ कहकर कठिन समय के बढ़ते दबावों का सामना करने का साहस भी। इस संग्रह की कविताएँ अपने मूलरूप में आम जनता के दुःख-दर्दों और ताप-त्रास के बीच जीवन के असीम राग की ही अभिव्यक्ति हैं – ‘दुःख का कुहरा/ ओझल हो/ जब आशा की उजास बिखरी हो/ आओ गीत लिखें कुछ जिनमें/ जीवन की मुस्कान भरी हो’।

कवि अपनी कविता में उन दबे-कुचले लोगों के जीवन के विविध पक्षों को अपनी कविता के माध्यम से सामने लाने में सफ़ल सिद्ध हुए हैं जिन्हें अपने सपनों को जोड़-जाड़ कर सीने की आदत हो गयी है। कवि का पक्ष एकदम स्पष्ट है। ऐसे राजनीतिक रंग में रंगे हुए नवगीत रचने का ताब एक प्रतिबद्ध नवगीतकार में ही हो सकता है। संग्रह में ‘लिखी हुई मजबूरी’, ‘सुनिए राजन’ और ‘वैसा कहाँ हुआ’ जैसे सशक्त नवगीत इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं।

इसके अलावा संग्रह में ‘ये भारत के लाल’, जैसे कुछ विशिष्ट आस्वाद की रचनाएँ भी इस संग्रह में संग्रहीत हैं। यह नवगीत बहुत पठनीय हैं और इनमे उठाये गये प्रश्न देश और समाज के ज्वलंत प्रश्न हैं जिनके हल वक्त रहते ही ढूंढें जाने चाहिए नहीं तो शायद निकट भविष्य की स्थितियां और भयावह हो सकती हैं। डॉ अब्दुल कलाम जी के प्रति श्रद्धांजलि स्वरुप लिखा गया ‘पंछी चला गया’ शीर्षक नवगीत एक श्रेष्ठ शोकगीत है। कवि इस नवगीत में लिखता है – ‘मन उदास है/ पिंजरा ख़ाली/ पंछी चला गया/.....हलचल/ रहती थी/ जब तक रौनक थी घर में/ रहती थी कुरआन की आयत/ वीणा के स्वर में/ हिन्दू, मुस्लिम/ सिक्ख, ईसाई/ सब को रुला गया’।

कवि नवीनता और प्रगति का विरोधी नहीं है बल्कि वह एक सचेत वैज्ञानिक दृष्टि और मानवीय समरसता के साम्य से विकास के समाजवादी राज्य की परिकल्पना करता है। गीत नए गायें’ शीर्षक नवगीत में वह कहता है – ‘उन्हीं पुरानी/ बातों को/ अब कब तक दुहरायें/ नए स्वरों में/ नई तरह से गीत नये गायें’ उसकी चाहना है कि उसका राजा उसके अपने यारों जैसा हो जिसे महलों में रहते हुए भी कुटिया में रहने वाली अपनी प्रजा के दुःख-दर्दों का भी पता रहे। ‘मैं चाहूँगा’ जैसी कविताओं का यह केन्द्रीय विचार है।

कुल मिलाकर आदमी के भविष्य के प्रति अप्रतिहत आस्था की कविताएँ हैं ये। कवि का मानवतावादी दृष्टिकोण जीवन और जन का जयगान करती है। एक नए कवि में एक साथ इतनी सारी विशेषताओं का होना सुखद आश्चर्य से भर देने वाला है। उसकी पक्षधरता इन कविताओं को स्थायी महत्त्व की रचनाएँ बना देता है। कविताओं में आक्रोश होते हुए भी वह कहीं भी लाऊड नहीं हुए हैं और उस आक्रोश को एक संयमित कथ्य में बदलकर पाठक की संवेदना को झकझोर कर रख देते हैं। प्रदीप शुक्ल का काव्य निर्भीक व्यंग्यात्मक व्यंजना का काव्य है। यह नवगीत सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक चेतना से संपृक्त हैं जिनमें पर्याप्त वैविध्य मौजूद है।

अपने व्यापक सरोकारों के कारण यह कविताएँ पाठक के मन-मस्तिष्क में दूर तक ध्वनित होती हैं। समकालीन कविता की उबड़-खाबड़ काव्यभूमि पर ताज़ा हवा के झोंके से आये इस संग्रह में एक सार्थक काव्यसृष्टि आकार लेती दिखती है।
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गीत- नवगीत संग्रह - अम्मा रहतीं गाँव में, रचनाकार-  डॉ. प्रदीप शुक्ल, प्रकाशक-  उत्तरायण प्रकाशन, प्रकाशन लखनऊ। प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य-   रुपये, पृष्ठ-  , समीक्षा- राहुल देव।

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