रविवार, 15 मई 2016

जिंदगी की तलाश में- श्याम श्रीवास्तव

कविता की लोकप्रियता के प्रष्न पर जब यह जुमला चस्पा किया जाता है कि आमजन तक पहुँचना ही उसका अन्तिम लक्ष्य है। तब इस कसौटी पर कसने के लिए एक ही परीक्षणयन्त्र काफी है कि कविता कितनी सम्प्रेषणीय है। इस सम्प्रेषणीयता में कितनी लोकसम्पृक्ति है और कितने लोग इससे गुजर कर कहते हैं कि भई वाह! ऐसा तो हमें भी महसूस होता है, अरे! यह तो हमारे गाँव, मुहल्ले की आँखिनदेखी है या फिर कि यह तो हमारे साथ भी गुजरी है। अब जिज्ञासा उठती है कि यह लोकसम्पृक्ति क्या बला है। लोकसम्पृक्ति किसी रचनाकार की समय पर सतर्क अन्वीक्षण दृष्टि है, उसका संवेदन है, पीड़ा का आर्तनाद और पुलकन का रोमाकुलन है। इस कसौटी पर यदि अधिकांश समकालीन कविताओं की परख की जाये तो यही निकष हाथ लगता है कि कविता की लोकसम्पृक्ति का क्षय हुआ है। और यह निकष कविता के अलोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण है।

लोकसम्पृक्ति के क्षय की इस चुनौती को जिन कुछेक कवियों ने भगीरथ-भाव से स्वीकार किया है, उनमें से एक नाम लखनऊ के ख्यातिनाम गीतकार श्याम श्रीवास्तव का है। वर्ष २०१६ की पहली त्रैमासिकी में आया उनका गीत संग्रह ‘जिन्दगी की तलाश में’ लोकसम्पृक्ति के रसायनों से भरपूर है। वे स्वयं कहते हैं कि ‘सम-सामयिक सन्दर्भों में मानव-जीवन से जुड़े सामाजिक संत्रास को शब्दिता प्रदान करना और जीवन की जिजीविषा को अक्षुण्णता प्रदान करना ही मेरे गीतों का अभिप्रेत है।’ वे अपने रचनाकर्म में गीत-नवगीत के विभेद या सीमारेखा को सिरे से ही नकारते हैं। मुखड़े से अन्तरों तक गीत की काया में वे कैसे नवगीत का परकायाप्रवेश करा देते हैं, उन्हें स्वयं नहीं मालूम। नवगीत की इस परकायाप्रवेशी विद्या के वे शायद अकेले विक्रमादित्य हैं।

वर्ण्यविषय और प्रसंगानुसार गीतों में गेयता, लय और टेक के समुचित निर्वाह, माधुर्यता के साथ ही नवगीति रचनाओं में रोजमर्रा की यथार्थ विद्रूपताओं और विडम्बनाओं के विम्ब उकेरने में वे सिद्धहस्त हैं। उनके कुछ कालजयी नवगीत तो जैसे उनका पर्याय बन गये हैं।
यह मुआ अखबार फेंको
इधर हरसिंगार देखो
जागते ही बैठ जाते आँख पर ऐनक चढ़ा के
भूल जाते दीन-दुनिया दृष्टि खबरों पर गड़ा के.......।

उठ रहीं लहरें खड़े हो घाट पर टाई लगाये
क्या पता कल यह लहर फिर, इस तरह आये न आये...।
रूप देखो या न देखो
रूप के उस पार देखो।

नयी सुबह में हृदय चाक करती अखबारों की खबरों का यह विम्ब सचमुच अप्रतिम है और अन्तिम पद की समटेक में अनुपम है नैसर्गिक प्रीति की आकांक्षा। ‘अभी तो चल रहा हूँ मैं’ चौतरफा प्रभंजनों से घिरे आम आदमी की चार कदम आगे बढ़ने और दो कदम पीछे हटने की स्वीकारोक्ति का एक और जिजीविषामूलक गीत है।

कमी रही
कई अनय सबल रहे झुके नहीं
मगर जिन्हें कुचल सका
उन्हें कुचल रहा हूँ मैं
अभी तो चल रहा हूँ मैं
मुझे न मित्र देखिए
उड़ी-उड़ी निगाह से
किताब हूँ वही महज कवर बदल रहा हूँ मैं।

५२ नवगीत, जिन्हें वे नवगीत की संज्ञा देना या न देना पाठक पर छोड़ते हैं, उनकी बहुआयामी गीत साधना का ऐसा प्रतिसाद हैं, जिन्हें ग्रहण कर पाठक क्षणांश को आत्मविस्मृत हो जाता हैं। उनके नवगीतों में जहाँ अम्मा-बापू के दैनिक गृह जंजाल में पिसते स्मृतिबिम्ब हैं वहीं संस्कारवान बेटे के प्रति वर्तमान सर्वभक्षी संस्कृति से अनिष्ट की सहज आशंका भी है।
‘बेटा कुछ बदला दिखता है
माँ डरती है।
‘पुरा पड़ोसी
कुत्ता बिल्ली
सबकी प्यारी रामरती’ में दूसरे के घरों में चौका-बासन करती कामकाजी महिला की कसक के बहाने समाज के अन्तिम पायदान के चरित्र का सन्तोषी जीवन दर्शन और ‘शिला मत बन’ में पुलिस-मीडिया-न्यायतन्त्र का आदमखोर गठजोड़ कुछ भी उनकी कहन की परिधि से बाहर नहीं है। पूजितों के प्रति आस्था विखंडन के दौर में ‘मन नहीं लगता विनय विरुदावली में’ के अतिरिक्त और क्या कह सकता है।

पूँजीवाद और आयातित रहन-सहन की गिरफ्त में लोक कलाओं का पराभव, ग्राम्य जीवन की सहजता का विलोप आदि तो कविता की सभी विधाओं के वर्ण्य विषय हैं, गीतकार ने इन्हें भी अपनी कहन से जीवंत किया है। ‘इधर उधर की छोड़ो बबुआ/घर की कथा कहो’ तथा बहुत बोझा नहीं अच्छा/सफर में सादगी अच्छी’ कहकर उन्होंने प्रकारान्तर से ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ वाली शाश्वत भारतीय परम्परा की निर्गुण और सूफी परम्परा की वकालत की है।

एक बात और उल्लेखनीय है कि ‘जिंदगी की तलाश में’ अतीतजिविता, परम्परामण्डन या स्मृतिविलाप के रूप में नहीं है, यह हमारी लोकमंगल कामना और श्रेय के संरक्षण के सन्दर्भ में है। यहाँ पारम्परिक प्रतीकों में दुर्धर्ष समय से मुठभेड़ करने का प्रतिकार और प्रतिरोध है। यह प्रतिरोध ‘दो बाँके’ का दिखावटी न होकर घन की चोट मारकर आततायी को लहूलुहान और पराजित करने का है। ऐसा जनवादी जनपक्षधर गीत जिसे सुनकर भुजायें फड़क उठें, नथुने फूल जायें, शिराओं का रक्त खौल उठे।

कुलबुला कर ही न रह जा यार
मार घन की चोट कस के मार

बेहया है सीख से हरगिज न सुधरेगा
कायदे कानून चुटकी से घुमा देगा
और कितनी हाय कितनी बार
मार घर की चोट
कस के मार।

हिंसकों से साबका तो मौन व्रत कैसा
जोर शब्दों में उगा शमशीर के जैसा
गीत में भर वक्त की ललकार
मार घर की चोट
कस के मार
यूँ न हॅंसकर टाल फुंसी बनेगी फोड़ा
जान लो चौपट फसल, है खर अगर छोड़ा
देर होगी तो कठिन उपचार
मार घन की चोट
कस के मार।

ऐसे कालजयी नवगीत, नवगीत साहित्य की धरोहर हैं। क्या प्रतीक, क्या विम्ब, क्या लय, क्या कहन, क्या शिल्प सब कुछ अनुपमेय।

हाथों में पैमाने थामे, पंचसितारा होटलों में जन सरोकारों के झंडाबरदार कवियों पर वे बड़ी साफगोई से आत्मस्वीकृति के बहाने तंज करते हैं कि
‘प्यासे को नीर पिला न सका
चोटिल तन-मन सहला न सका
मेरा अपराध क्षमा करना।

आम बोली-बानी में रचे गये गीत-नवगीत संग्रह ‘जिंदगी की तलाश में’ की सभी रचनायें गीत-नवगीत के शिल्प, छन्दानुशासन, कथ्य की दृष्टि से पुष्ट हैं। कथ्यानुकूल प्रतीक और विम्ब इसे हृदयग्राही संप्रेषण की क्षमता से लैस करते हैं। आशा है इस गीत-नवगीत संग्रह को पाठकवृन्द और कविजगत सिर माथे पर लेगा।
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गीत- नवगीत संग्रह - जिंदगी की तलाश में, रचनाकार- श्याम श्रीवास्तव, प्रकाशक- नमन प्रकाशन, २१० चिन्टल्स हाउस, १६ स्टेशन रोड, लखनऊ-२२६००१। प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- अजिल्द रुपये १५०/- सजिल्द रुपये २००, पृष्ठ-९९ , समीक्षा- रामशंकर वर्मा। ISBN 978-81-89763-42-8

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