सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

हाशिये समय के- मधुकर अष्ठाना

मधुकर अष्ठाना का नाम नवगीत के उन पुरोधाओं में गिना जाता है जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती, समकालीन और परवर्ती पीढ़ी के हर रचनाकार को किसी न किसी प्रकार अपने लेखन से आकृष्ट किया है नवगीतकारों की एक पूरी परवर्ती पीढ़ी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर रही है। अपने भोजपुरी गीतों के संग्रह 'सिकहर से भिनसहरा' के द्वारा साहित्यिक जगत में पदार्पण करके हिन्दी ग़ज़ल संग्रह 'गुलशन से बयाबाँ तक' की यात्रा को आगे बढ़ाते हुए अष्ठाना जी अपने प्रथम नवगीत संकलन 'वक्त आदमखोर'-से गीत-नवगीत की सर्जना में निरन्तर लीन रहे।

प्रस्तुत नवगीत संचयन 'हाशिये समय के'-उनका आठवां नवगीत संग्रह है। आयु के आठवें दशक में चलते हुए मधुकर अष्ठाना जी-अपने मौलिक सृजन की सक्रियता के साथ-साथ अन्य अनेक नवगीतकारों की कृतियों पर भी भूमिकाएँ और समीक्षायें लिखकर अपनी समकालीन तथा नई पीढ़ी का मार्गदर्शन कर रहे हैं। अष्ठाना जी का लेखन अपने समय की क्रूर विद्रूपताओं पर प्रहार का लेखन है जिसमें उदारीकरण और मुक्त-बाजार व्यवस्था के दुष्परिणामों तथा उसके सामान्य-जन पर पड़ने वाले प्रभावों को बहुत सशक्त ढंग से नवगीतों में व्यक्त करके अत्यंत प्रभावी चोट की गयी है।

प्रस्तुत संग्रह में अष्ठाना जी ने अपने नव्यतम पैंसठ नवगीतों को स्थान दिया है। रचनाओं के शिल्पगत सौन्दर्य के साथ ही कथ्य में समकालीन यथार्थ और मानवीय सम्वेदनाओं की मार्मिकता को जिस सफलता के साथ अभिव्यक्त किया है वह संग्रह के हर गीत में दिखाई देता है। श्रेष्ठता और स्तरीयता के निकष पर पूरी तरह खरे उनके गीत जीवन के हर पक्ष की गहन विवेचना द्वारा जनधर्मी चेतना की रचनाएँ हैं।-वर्तमान शोषण-उत्पीड़न, व्यवस्था की त्रासदी, विषमता, विघटन, विकृति, विवशता, मानव-मूल्यों में ह्रास, सांस्कृतिक पतन और प्रदूषण तथा आम-आदमी के जीवन संघर्ष को चित्रित करते हुए उसके साथ अपनी प्रबल पक्षधरता को व्यक्त किया गया है। संग्रह के गीतों को शीर्षक तो नहीं दिया गया है अपितु क्रम संख्या देकर प्रस्तुत किया है। अष्ठाना जी ने समयगत यथार्थ के लगभग हर बिन्दु पर अपनी प्रतिक्रियात्मक सर्जना को गीतों में व्यक्त किया है।अपनी आत्माभिव्यक्ति में वे कहते हैं कि 'मुझे अपनी रचनाओं से तृप्ति नहीं मिलती। मैं केवल अपने समय को तटस्थ और निरपेक्ष दृष्टा की तरह देखता हूँ और जैसी अनुभूतियाँ अन्तर में उपजती हैं,कागज़ पर उतार देता हूँ।'

अष्ठाना जी के गीत पारम्परिक मूल्यों के साथ आधुनिक दृष्टिबोध में मिथकीय प्रयोगों को भी आत्मसात किये हुए हैं।उनके गीत विरहानल की तपन मिटाते काग सगुन के हरकारे हैं। वे स्वयं कहते हैं कि ''ममता के आँचल से निकले /सुनो बन्धु /ये गीत हमारे…शब्द-शब्द में भरे/आस्थाओं-विश्वासों के /जयकारे।''

मूल्यहीनता को चित्रित करते हुए ,''मूल्य पोसती हुई /पीढ़ियाँ /खुद ही मूल्यविहीन हुईं /मौन हुआ प्रतिरोध/नदी की धारा /क्षीण हुई /बची न कहीं संस्कृति अपनी नगर हो गए गाँवों में ''- और एक अन्य गीत में ,''अपशब्दों की / चली मिसाइल/तोपें दगी गालियों की /बम भी फटे /चरित्र हनन के /फ़र्ज़ी ख़ुशी तालियों की।''

इसी क्रम में संग्रह के गीत 'घूम रहे हैं /गली-गली में /कुछ कुत्ते आवारा', तथा 'उतर गयी रिश्तों की गर्मी' आदि उल्लेखनीय हैं। आज के परिदृश्य पर टिप्पणी देते हुए क्रम संख्या तीन के गीत में हिंसक अँधेरों के संगठित और सूरज के लापता होने तथा हाशिये के आदमी की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा है, '' हाशिए का आदमी /करने लगा है /आत्महत्या/जान के पीछे/पड़ी है /जन्म से ही भूख कृत्या।''

एक माँ जिसके बेटे को खोये हुए ज़माना बीत गया वह अभी भी उसके लिए लोरी गाकर स्वयं को बहला रही है। क्रम संख्या चार पर यह गीत मार्मिक संवेदना की अभिव्यक्ति का अनुपम गीत है, ''बेटा खोये/ हुआ ज़माना /माँ अब तक लोरी गाती है... भरे पूरे घर में /सब हॅंसते पर/माँ की फटती छाती है-... आती नहीं कहीं से/बेटे की ख़बरें/कोई पाती है।''

स्वयं को समय का कारकून कह कर अपना परिचय दिया है, ''जो भी कहा समय ने /हमने आज तलक/ बस वही किया है /कभी जाम छलके खुशियों के /कभी खून के /अश्रु पिया है'' और फिर-अगले गीत में कह रहे हैं, ''खून के आँसू पिये हैं / ज़िन्दगी फिर भी जिए हैं... हम समय के हाशिये हैं /ज़िन्दगी फिर भी जिए हैं। ... बंधु हम बुझते दिए हैं।''

इस व्यवस्था में आम आदमी का जीवन मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में ही पस्त हो रहा है और जो आश्वासन मिल रहे हैं उनकी करनी और कथनी को समझ पाना मुश्किल हो रहा है ,''किधर दृष्टि है / किधर निशाना / समझ न पाये ज्ञानी / कथनी पर ही बजें /तालिया /करनी है अनजानी।''

यह सब देखकर गीतकार सावधान भी कर रहा है और कहता है, ''चुप रहने की / सजा यही है / अपनी-अपनी खैर मनाओ... जब कुछ करने का /था मौसम / ख़ुशी-ख़ुशी तब /हाथ कटाये /सारे संकल्पों का /तर्पण कर देने पर / क्या पछताये... चारों ओर भेड़ियों के दल /लिखो/काल्पनिक यश गाथायें /पढ़ो कशीदे/चरण पखारो/ और सहो हर पल विपदायें / छींका नहीं टूटने वाला /खट्टे हैं अंगूर बताओ।'

संग्रह का गीत सं. तेरह-में गीतकार-अपने समय के-रचनाकारों का उद्बोधन करते हैं, ''सारी दुनिया डरी -डरी / बोल कबीरा खरी-खरी... हुई धुवांठी /तेरी बानी /गयी लुकाठी की /निगरानी /लोग जुबाठा नधे बैल हैं /हाँफें ऊसर में बेपानी /चिटक रही /सूखी ठठरी''

समाज में नैतिक पतन के दृश्य इतने आम तौर पर दिखने लगे हैं कि राह में क्रूर भेड़ियों वाली नजरें मिलने लगी हैं और औरत स्वयं नारी होने में डरते हुए कह रही है ,''मानवता/ मर्यादा की बातें /लेकिन मन के काले /घोर अराजकता में /औरत खुद को /कहाँ छिपा ले /अपराधी / उन्मुक्त घुमते/बन्दी बने सवाली''

महानगरीय प्रदूषण का कचरा ढोती नदी अब नाले में बदल गयी और जहां मछलियों का पुश्तैनी घर था वह भी नहीं बचा। गीत संख्या अठारह में कहा है, ''मुश्किल हुआ/घाट पर रुकना/आती है दुर्गन्ध भयंकर/खड़े रहे खामोश शिवाले /छोड़ गए /लेकिन शिवशंकर '' और अगले ही गीत संख्या में भी इसी पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहते हैं, ''यही नदी है/जिसके तट पर /बन्धु हमारा बचपन बीता...पटी हुई कूड़े -कचरे से/अब होता है रोज़ फजीता''

इसी के साथ महानगर के वातावरण में आदमी व्यर्थ की भागमभाग में अपनी हंसी-ख़ुशी का भी अहसास नहीं कर पाता । गीत संख्या इक्कीस में देखिये ''पता पूछते/हँसी-खुशी का /भटक रहे हम महानगर में ... भरी झुग्गियाँ भी /गोरी रजधानी के/काले अंतर में''

हमें अपनी भारतीय संस्कृति पर बहुत गर्व है किन्तु हम सांस्कृतिक पतन को झेलते हुए-जी रहे हैं, ''सभ्य हुए हम,/सभ्य हुए हम/रीति-रिवाजों,/रिश्ते-नातों के/इस घर में टूट गए दम'' और ''धोते-धोते मैली चादर /खुद अपवित्र हुए /जीवन के हर पतन पराजय /आज सचित्र हुए।''

विवशताओं में घिरा जीवन नकली फूलों से बहलाया जाता रहा है। सपने दिखाए गए किन्तु उनकी कोई मंज़िल नहीं है ,''सपने थे /पर उनका कोई /अर्थ न मंजिल थी/ थीं तो मात्र विवशताएँ /मुश्किल ही/ मुश्किल थी''-इसी के साथ संग्रह के अंतिम गीत संख्या पैंसठ में ,''आग ऊपर और /नीचे पक रहे /तंदूर में हम /कौन जाने/ कब तलक है /ऑक्सीजन के बिना दम /बहुत मुश्किल लगे /अगली सांस का भी /लौट पाना।''

अंधविश्वास और पाखण्ड पर प्रहार करते हुए संग्रह के गीत संख्या चालीस में अपनी पूरी शक्ति से नकली संतों का, जो नेता और माफियाओं के कंधे पर सवार होकर सामान्य जन को भ्रमजाल में उलझाकर लूट रहे हैं, पर्दाफ़ाश किया है। उत्कृष्ट गीत की पंक्तियों में व्यक्त किया है,'' हमें ज्ञान का पाठ पढ़ाने /उद्धव जी /आ गए नगर में... साथ लगी दस-बीस दुकानें /मनमाना पाखण्ड भुनाती / धर्म भीरुओं के अंतर में /खूब अंधविश्वास जगाती /-डुबा रहे आस्था हमारी /कर्मकाण्ड के /आडम्बर में ... छाये रहते रोज़ /यही पर /अखबारों की /बड़ी खबर में।''

समसामयिक युगबोध की विद्रूपताओं के बीच कुछ रिश्तों की सुखद अनुभूतियों के गीत भी संग्रह में शोभित हैं जिनमे वात्सल्य और परिवार के पारस्परिक प्रेम और सौहार्द को चित्रित किया गया है। गीत संख्या बावन की पंक्तियाँ देखिये, ''शिशिर और हेमन्त /सहन कर /दिन अब बड़ा हुआ /और हमारा नन्हका भी/ पैरों पर खड़ा हुआ... किलकारी से /भर देता /आँगन का सूनापन /चहक रहा है /पूरा घर /जब से आया बचपन /कहो न माने /करे अनसुनी/चिकना घड़ा हुआ।''

इसी क्रम में गीत संख्या साठ में आस्थाओं द्वारा घर को सजाते हुए कहा है, ''घर में घुली /प्यार की खुशबू /आशाओं ने /इसे सजाया...केवल यह घर नहीं /आस्थाओं ने /इसमें रंग जमाया '' और इसी के साथ एक छोटी सी चिड़िया के खिड़की पर आने और चोंच मारने से घर में हुए सुखद वातावरण का एक चित्र गीत संख्या बासठ में दृष्टव्य है, ''इस खिड़की पर /प्रतिदिन/एक चिरैया आती थी /चोंच मार/ शीशा खटका कर /हमें बुलाती थी... ढाई आखर का /हमको वह /पाठ पढ़ाती थी।''

पूरे परिदृश्य पर दृष्टि डालें तो व्यवस्था की विद्रूपता के लिए तथा देश की दुर्दशा के लिए राजनीतिक जोड़-तोड़ ,छल-प्रपंच और शासन-सत्ता के केन्द्रों पर स्थापित लोगों के मर्यादाहीन आचरण जिम्मेदार हैं। अष्ठाना जी ने इस तथ्य को अपने लेखन का केंद्र बनाकर विसंगतियों पर व्यञ्जनापूर्ण प्रहार किये हैं। अपने अनेक गीतों में तरह-तरह से इस त्रासदी के बिन्दुओं को छुआ है। एक चित्र देखिये, ''कैंची हुई जबानें/राजा लगे /यहाँ पर प्यादा /पूँछ उठाने पर /दिखते हैं/सबके सब मादा''।-एक अन्य गीत में देखिये भाषण पियें /योजना खायें /दें राजा को रोज दुआयें /होता हरफनमौला राजा/जिसमें होती/ राम रजाई / डरता कैग न जेपीसी से /ऊँगली पर है सी०बी०आई०/सहसबाहु वह /जिसके आगे /बड़े सूरमा पूछ हिलायें/... एक वही सूरज है /जिसकी सारे ग्रह /परिक्रमा लगायें।''

गीत संख्या तैंतीस में कैसी व्यंजना के स्वर हैं- ''कंधों पर बन्दूक/दूसरों के रखता/फिर भी /उसका रहे निशाना सधा हुआ /... उसकी दुनिया में तो मत्स्य न्याय चलता /भीतर-भीतर /कोई सम्प्रदाय पलता ''-और गीत संख्या चौवालीस में देखिये, '' गधे राजमहलों में / पलते /घास नहीं /काबुल वालों को /समझेंगी क्या भेड -बकरियाँ /राजा की शातिर चालों को ...बना रहा है हमें भिखारी /भत्ता लैपटॉप का दानी।''

संग्रह का गीत संख्या पैंतालीस अपनी सशक्त व्यंजना से पूरे राजनीतिक परिदृश्य को अनावृत्त कर रहा है ,'' फूटा भाग्य हस्तिनापुर का /अंधे ने पाया सिंहासन /... आँखों पर पट्टियां बाँध कर हुई व्यवस्था गूँगी-बहरी/आरक्षण-संरक्षण में /अब प्रगति लहर है/ ठहरी-ठहरी-... राज हुआ एफ० डी०आई० का /सुनते देशभक्ति का भाषण।''

अन्य अनेक उदाहरण हैं किन्तु सबका उल्लेख करने से पठनीयता की जिज्ञासा प्रभावित होती है। अतः स्वयं पढ़कर आनंद लेने में अच्छा लगेगा। क्योंकि आजकल जब गीत-नवगीत पर तथाकथित मुख्यधारा के साहित्यिक विमर्श में निरन्तर प्रहार हो रहे हैं और कुछ स्वयम्भू समीक्षक, आलोचक ,सम्पादक और स्वतंत्रचेता सिद्धान्तकार गीत के मरने की घोषणाएँ कर रहे हैं तथा कुछ कवि- सम्मेलनी गीतकार ऐसे वक्तव्य दे रहे हैं कि गीत का इतना अहित 'नई कविता 'ने नहीं किया जितना 'नवगीत' ने किया है, तब मधुकर अष्ठाना ऐसे रचनाकार हैं जो नवगीत की पताका को अपने अविराम लेखन द्वारा ऊँचे आकाश में निरंतर फहरा रहे हैं और अपने इस नव्यतम नवगीत संग्रह 'हाशिये समय के' को लेकर उपस्थित हुए हैं। संग्रह के सभी गीत सहज ग्राह्य और उद्धरणीय हैं। अपने समय की क्रूर विद्रूपताओं पर कड़े व्यंग्य और प्रहार करने के कारण ये गीत प्रचंड व्यंजना की प्रहारक सर्जना के गीत हैं जिनमें गीतकार ने अपनी प्रतिबद्धता को निरंतर बनाये रखा है और सामान्य जन की पक्षधरता के साथ अविचल खड़े हैं। गीतों की भाषा और शैली कथ्य के अनुरूप ढली हुई होने से संप्रेषणीयता अंत तक बनी हुई है जो पाठक को एक बार पुस्तक हाथ में लेने पर अंत तक पढ़ने के लिए बाध्य करती है।

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गीत- नवगीत संग्रह - हाशिये समय के, रचनाकार- मधुकर अष्ठाना, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ-१५९ , समीक्षा- जगदीश पंकज।

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