सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

रेत की व्यथा कथा- राम सेंगर

१९४५ में जिला-हाथरस में जन्मे और वर्तमान में कटनी, मध्यप्रदेश की भूमि से साहित्य जगत को अपने नवगीतों से समृद्ध करने वाले राम सेंगर हिन्दी नवगीत के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे देश के उन गिने-चुने नवगीतकारों में से एक हैं, जिनके नवगीत डा॰ शम्भुनाथ सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत दशक-२’ व ‘नवगीत अर्द्धशती’ में स्थान पाने में समर्थ हो सके। नवगीत के चरणबद्ध विकास और उसके चरित्र में शिल्प, कथ्य, भाशा, युगबोध के बरक्स हुए परिर्वतनों को जानने के लिए नवगीत के प्रारम्भिक दौर के नवगीतकारों के नवगीतों पर पाठचर्या करना अनेक कारणों से उपयोगी है। स्वराजकामी भारतीय जनमानस ने जिन अच्छे दिनों की चाह में कन्धे से कन्धे मिलाकर विदेशी सत्ता से लोहा लिया, उसके राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विचलन, विखण्डन, स्वप्नभंग की अच्छी पड़ताल उनके नवगीतों में की गयी है। 

‘रेत की व्यथा कथा’ उद्भावना प्रकाशन से आने के पूर्व ‘शेष रहने के लिए-१९८६’, ‘जिरह फिर कभी होगी-२००१’ ‘एक गैल अपनी भी-२००९ तथा ‘ऊॅंट चल रहा है-२००९ जैसे उनके नवगीत संग्रह
 साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। 
               
‘रेत की व्यथा कथा’ में संकलित १०४ नवगीत कथ्य, भाषा-शैली, शब्द-विन्यास और शिल्प के स्तर पर उनकी परिपक्व पकड़ के साक्षी हैं। लोकसम्पृक्ति से आच्छादित आस-पास बिखरे विषयों पर उनकी पर्यवेक्षण दृष्टि बहुआयामी है। नयी पीढ़ी के गाँव से शहरों में विस्थापन के फलस्वरूप सामाजिक ताने-बाने की टूट-फूट की विडम्बना कितनी जीवंत हो उठी है इन पंक्तियों में-

ताराचंद, लोकमन, सुखई
गाँव छोड़ कर चले गये
गाँव, गाँव-सा रहा न भैया
रहते तो मर जाते। 
...
टुकड़े-टुकड़े बिकीं ज़मीनें
औने-पौने ठौर बिके
जीने के आसार रहे जो
चलती बिरियाँ नहीं दिखे
डब-डब आँखों से देखे
बाजों के टूटे पाते।                          
पलायन की बेबसी इन पंक्तियों में कितनी मार्मिक और सहजोर हो उठी है-

गाँव का 
खॅंडहरनुमा घर
एक हिस्सा था
खुशी से छोड़ आये। 
...
गाँव हमारा वृन्दावन था
इसी धीर नदिया के तीरे।
हैरत में हैं, कहाँ गया वह
लेश नहीं पहचान बची रे।
उजड़ गये रोजी-रोटी में
ख़ाकनसीनों के सब टोले।

पदलिप्सा और चाटुकारिता के विद्रूप समय में स्वयंभू सत्ताधीशों की हाँ में हाँ मिलाने की प्रवत्ति पर कटाक्ष कितना सटीक है इस नवगीत में। 

सुनो भाई!
तुम कहो सो ठीक
लो हम
कीच को कहते मलाई! 
...
बडे़ लोग हैं
बात-बात में
भारी बतरस घोलें। 
...
बड़े लड़ाके चार कान के
कहें तवे को आरसी।

विकास की दौड़ में मानवनिर्मित संरचनाओं में मृत्यु की असामयिक त्रासदी झेलने का विम्ब उकेरने में वे सिद्धहस्त हैं-             
डूब गया शिवदान 
नहर में
हुई बावरी माई। 

नवगीतों में वर्ण्य विषय की अछोर विविधता है उनके पास। पूँजीवादी  चलन में संकुल परिवारों से अलग-थलग पड़े बुर्जुगों का एकाकीपन, असहायता, घुटन को चित्रित करते हुए वे कहते हैं-

अच्छा ही हुआ
सब भूल गये।
...
नातों का विम्ब लगे
जिसका परिवार नाम
टूटता हुआ। 
...
कठिन समय ने
खाल उतारी
कैसे कैसे पापड़ बेले
बचे समर में निपट अकेले
...
पर इस एकाकीपन में भी अटूट जिजीविषा के सहारे सकारात्मक दैनिकचर्या के अद्भुत विम्ब भी हैं उनके पास-

इकली है तो क्या 
प्रसन्नमन
जीती जमुना बाई।  
...
कोठरी में 
क्या करे ठुकठुक!
आ, तुझे गा लूँ अगाये दुख!     
...
आम दिनों की तरह आज भी
जागे नौ के बाद। 
...
फूट रहे हैं
साँस-साँस में
गीत सृजन के
भले अकेला हूँ 
पर, मुझमें 
सृष्टि समाई है। 

उनके वर्ण्य विषय यथार्थ के मजबूत माँझे में बॅंधकर समकालीन युगबोध के विस्तृत नभ का भ्रमण कराते हैं। यांत्रिक और मानसिक तकनीक के दोधारे वार के फलस्वरूप ठेठ गाँवों के पुश्तैनी शिल्प, कुटीर-धन्धों का विनाश, आग्रही जातीयता के दुष्परिणाम, वैमनस्य, विवषता, संकीर्णता, घुन्नापन, भेदभाव, जैसी विकृत मनोवृत्तियॉं का चित्रण बखूबी उन्होंने किया है। लालफीताशाही, स्वार्थ, बाजारवाद, मॅंहगाई के बीच कम ही सही सहज रोमांस की प्रतीतियों को भी स्वर दिया है-

दूर किसी पर्वत पर
खिंची रजत रेखा-सा
झिलमिला रहा
पहला प्यार।
...
फिर दिखी हो!
कड़क सुन सौदामिनी की जागते हैं
रात, सपने में। 
                        
पुष्ट नवगीत में सूत्रवाक्य की तरह का अर्थवान, सम्प्रेषणीय, लययुक्त मुखडा उसके आकर्षण, स्वीकार्यता में अनायास वृद्धि और आगे के अन्तरों के प्रति सहज जिज्ञासा उत्पन्न करता है। इस दृष्टि से संकलन के अधिकांश मुखड़े अद्भुत हैं-

हॅंसी-ठट्ठा ज़िन्दगी का
चले अपने साथ।
...
कल अपने भी दिन आयेंगे।
...
दिल रखने को नहीं छिपाई
मन की कोई बात।
...
बदल गये परिप्रेक्ष्य
कालगति
हम ही बदल न पाये। 
...
सबकी जय-जयकार
बिरादर
सबकी जय-जयकार।
...
हम हिरन के साथ हैं
वे भेड़ियों के साथ
...
कठिन समय ने खाल उतारी।
...
चरखा कात रही हैं अम्मा
दोनों हाथ साधते लय को।
...
चबूतरा बढ़ई टोले का
जुड़ी हुई चौपाल।                       
...
जन से कटे, मगन नभचारी
देख रहे हैं नब्ज़ हमारी।
...
ग़लत आउट दे दिया
आउट नहीं थे,
रिव्यू देखें....
सरासर ‘नो बाल’ है। 
...
चलो, छोड़ो कुर्सियों को
यहीं
इस दहलीज पर ही बैठ कर
दो बात करते हैं। 
...
गीत या नवगीत 
जो भी लिख!
आदमी के पक्ष में ही दिख!
...
चढ़ी बाँस पर नटनी भैया
अब क्या घूँघट काढ़े।
...
ऐसे बैठे हैं ज्यों
मुँह में
गोबर भरा हुआ हो।
इनके अतिरिक्त अन्य नवगीतों के मुखड़ों में भी कहीं-कहीं मुहावरों का प्रयोग, संक्षिप्तता, गेयता, प्रवाह का निर्वाह उनके जैसे बड़े कद के नवगीतकार के सर्वथा अनुरूप है।   
                    
७० वर्षों का अकूत जीवन अनुभव, दर्षन उनके नवगीतों में अविच्छिन्न रूप से विद्यमान है। समय का खुरदुरापन व्यक्त करने में उन्होंने कहीं कोताही नहीं की है। लोक में प्रचलित शब्दों के संरक्षण में भी कवि की महती भूमिका निर्विवाद है। बघेली और ब्रजभाषा के आँचलिक शब्दों का बेहद संजीदगी और करीने से प्रयोग उनके विपुल शब्द भण्डार का धनी होने का संकेत है। ऐसे शब्दों का अर्थ जानने के लिए मुझे उनसे फोन पर सम्पर्क करना पड़ा। शब्दकोशों भाशा के प्रति पाठकों के जुड़ाव और जिज्ञासा जगाने की यह चातुरी और कौशल विरले नवगीतकारों के पास है। 

धन्धे-टल्ले, जॉंगर, कीचकॉंद, घूमनियॉं टिकुरी, इकहड़ पहलवानी, झाऊ, झोल, हिलगंट, जगार, झाँझर, लाठ, घरपतुआ, डूँगरी-डबरे, खिसलपट्टी, मलीदा, गोड़गुलामी, सतनजा, गम्मत, गुन्ताड़े, अलसेट, तखमीने, घीसल, नरदे, चरावर, ठोप, गहगहा, टिटिहारोर, लवे लोहित, ग्यारसी, औझपा, निमकौड़ी, छाहुर, तकुआ-पोनी-पिंदिया आदि शब्दों का सटीक चयन ऐसा ही प्रयत्न है।   

नवगीतों में शिल्प, मुखड़े, अंतरे, विम्ब विधान, संक्षिप्तता, युगसापेक्षता, लय, छन्दानुशा
सन, आदि तत्व उसे गीत से प्रथक संज्ञा देने में समर्थ होते हैं। संवेदना तो गीत से विरासत में मिली ही है। गाँव की दोहपर में लोकजीवन के क्रियाकलाप, हॅंसी-ठिठौली, चौपालों की गपशप, ताल में सिंघाड़े तोड़ने, अलाव तापने जैसे अनेक विम्ब अनूठे बन पड़े हैं-  
                   
सुनी ख़बर पर
बदहवास-सी
एक रूलाई फूटी।
डोल कुएँ में गिरा
हाथ की रस्सी सहसा छूटी। 
...
बानक से बिदका कर
सब झरहा कुत्तों को
अजगर-सी पड़ी हुई
सड़क के दलिद्दर पर
मारता कुदक्के 
यह बानर।
...
विष्णु घोंट रहा है लेई
चोटी गूँथ रही हरदेई
बच्चू बना रहा घरपतुआ
चींटे काट रहे अक्षय को।
...
सड़क-बगिया-
खेल का मैदान-बच्चे
खिसलपट्टी
चाय पीने का इधर
आनन्द ही कुछ और है। 
...
मैली धुतिया
चीकट बंडी
पहन भरी बरसात में।
चला जा रहा मगन बहोरी
ले चमरौधा हाथ में। 
...
दंगाई कहर में
जले घर के मलबे पर
बैठे हैं बीड़ी सुलगाने।
...
ऐसे बैठे हैं ज्यों
मुँह में
गोबर भरा हुआ हो।                       
...
संकलन के कई नवगीतों में वे आमजन की चिन्ता के साथ खड़े नजर आते हैं। पुश्तैनी कुटीर-उद्योग जो ग्राम्य समाज की आजीविका, शिल्प-कौशल का आधारस्तंभ थे, आयातित नीतियों और मशीनीकरण की भेंट चढ़ गये। तद्जनित विस्थापन, पलायन, बेरोजगारी जैसी विसंगतियों, विवशताओं के अनेक चित्रों से पाठक उनकी जनपक्षधरता का आकलन कर सकते हैं। 

धन्धे, टल्ले बन्द हो गये
दस्तकार के हाथ कटे।
लुहर-भट्ठियाँ फूल गयीं सब
बिना काम हौसले लटे।
बढ़ई-कोरी-धींवर टोले
टोले महज़ कहाते।
...  
हाथ-पाँव चलते हैं तब तक
खेत कमायें, ढ़ेले फोड़ें
ठौर-मढ़ैया खड़ी हो न हो
पेट काट कर पैसा जोड़ें
वक़्त बहुत आगे उड़ भागा
जो होगा देखा जायेगा
फूटा करम न भाये।
...
दबा और कुचला हरिबन्दा
बूढ़ा बाप हो गया अंधा
तेल दिये का कब तक चलता
कर्कट ने लीली महतारी
कठिन समय ने खाल उतारी।
...
रचे में बोले
न यदि मिट्टी
तुष्टि के सम्मोह की कर जाँच 
कुछ नहीं होता
करिश्मों से 
हो न जब तक भावना में ऑंच
स्वयं से, बाहर 
निकल कर 
दीन-दुनिया से न जाये छिक!
गीत या नवगीत 
जो भी लिख!
आदमी के पक्ष में ही दिख!                      
सहज सम्प्रेष्य भाषा में कहीं-कहीं लोकोक्तियों, मुहावरों के प्रयोग ने कथ्य में गजब का पैनापन दृष्टिगोचर होता है। 
चकमक दीदा
भखें मलीदा, चीरें एक
बघारें पाँच 
उद्धत को पानफूल
प्रेमी को दुतकारी 
निमकौडी़ पर
मरे न कोयल
कौआ को सब भावे चोट पाँव में
माथे मरहम, बड़े लड़ाके चार कान के
कहें तवे को आरसी...  इत्यादि।   

‘रेत की व्यथा-कथा’ नवगीतकारों की पुरानी पीढ़ी की अपनी विशिष्ट कहन, भाव-भंगिमा, लोकसम्पृक्ति पर सशक्त पकड़ का बहूमूल्य दस्तावेज है, इसका समादर किया जाना चाहिए। 
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गीत- नवगीत संग्रह - रेत की व्यथा कथा, रचनाकार- राम सेंगर, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन 
एच-५५, सेक्टर २३, राजनगर, गाजियाबाद।  प्रथम संस्करण- २०१३, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ- १३५, समीक्षा - रामशंकर वर्मा।

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