शनिवार, 29 अगस्त 2015

गीत अष्टक (प्रथम पुष्प) - सं. कमलकांत सक्सेना

भाई कमलकान्त सक्सेना के संपादन में मध्यप्रदेश के श्रेष्ठ आठ गीतकारों का संग्रह ‘गीत अष्टक’ (प्रथम) का प्रकाशन हुआ है। इसमें यतीन्द्रनाथ ‘राही’, दामोदर शर्मा, चन्द्रसेन विराट, जगदीश श्रीवास्तव, आचार्य भगवत दुबे, रामप्रकाश ‘अनुरागी', श्रीमती निर्मला जोशी और मुकेश श्रीवास्तव ‘अनुरागी’ के चुने हुए गीतों को संकलित किया गया है। 

संपादकीय में भाई कमलकान्त सक्सेना ने लिखा है, ‘गीत गति है, प्रगति है और नियति भी। गीत एक संज्ञा है। संज्ञा का गुण है अपरिवर्तनशील रहना।’ किन्तु गीत की जीवन्तता इसी बात में है कि उसकी अनुभूति में ताजगी और शिल्प में नवता बरकरार रहे। वह अपने युग-सन्दर्भों के साथ लय, ताल, छन्द का अनुगामी बना रहे। जैसे मनुष्य एक लयबद्ध छान्दसिक जीवन जीता है, गीत भी उसी का पक्षधर है। संपादकीय में इसी बात को विस्तार दिया गया है। भागवतप्रसाद मिश्र ‘नियाज’ का भी मानना है कि ‘मानव जीवन में जो उल्लास-व्यथा, पीड़ा, आशा-निराशा, सुख-दुःख, मिलन-विछोह, प्रेम-घृणा, क्रोध, निर्वेद आदि के क्षण आते हैं, वे हमारी मनोवृत्ति और व्यवहार को बदल देते हैं- गीतिकाव्य ‘स्वानुभव निरूपिणी कविता’ की आत्मा है’।
इस संग्रह के लगभग सभी गीतकारों के गीत आये दिन पत्र-पत्रिकाओं मे पढ़े जाते रहे हैं। संकलन में सर्वप्रथम ‘महाप्राण’ खण्डकाव्य के रचयिता यतीन्द्रनाथ ‘राही’ के गीत पढ़ने को मिले। इन गीतों में नये-पुराने अर्थात् पारम्परिक प्रेम गीत और कुछ नया बोध लिये हुए। इनमें अनुभूति की गहराई, सुन्दर शब्द चयन, नये बिम्बों के प्रयोग, विशेषकर प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक बिम्ब, बोलते हुए मिलते हैं। यथा-

‘आज सौ-सौ बार मेरी
आँख फिर से डबडबाई

बादलों में फिर घुमड़ती
यह तुम्हारी याद आई!’

इसमें याद का घुमड़-घुमड़कर बादलों की तरह आने में व्यथा-कथा की समूची अभिव्यक्ति मिलती है, जो अत्यन्त संप्रेषणीय है।
इसी क्रम में, दामोदर शर्मा ‘सूली ऊपर सेज पिया की’ खण्ड काव्य के कवि हैं। इनके गीतों में नवगीत पूर्व की पुरवा की सुगन्ध मिलती है। इनके गीत अति संप्रेषण-क्षमता लिये हुए, प्रेमिल वेदना के स्वर से अनुगुँजित हैं। यथा-

‘मैं तुम्हारे दर्द को पहचानता हूँ
प्राण! अपने प्यार की सौगन्ध ले लो’

अथवा-

‘तुम्हारा है!’ प्रणय निवेदन के इन गीतों में लौकिक और अलौकिक परछाइयों के स्वर भी फूटते सुनाई देते हैं।
चन्द्रसेन ‘विराट’ के प्रेमिल गीतों का व्यक्तित्व भी विराट ही दिखाई देता है। ये व्यक्ति सीमा से पार, विराटता की ओर अपनी लेखनी चलाते नजर आते हैं। एक दर्जन से ऊपर गीत संग्रहों के ये राजकुमार हैं। इनके गीतों में लोक-संवेदना और व्यक्ति-पीड़ा का सम्मिलन ही, उन्हें प्राणता प्रदान करता है। यथा-

‘क्या भाव समाधि लगी?
हर दृश्य सुन रहा हूँ!’

यह ‘दैवी इन्द्रिय क्षमता’ या कहें कि ‘आत्म-चेतना का वरदान’ कवि में मौजूद है। वे आगे लिखते हैं,

‘एक सुहागन दीप धर रही
तुलसी चौरे पर!’

अथवा

‘बोल तुझे क्या जिन्दगी?
बहुत उदास रहा करती है!’
इस तरह की जिन्दगी से बातचीत करने का दम किसी ‘विराट’ में ही सम्भव है।
भाई जगदीश श्रीवास्तव ने गीत धरातल पर कुछ ‘जलते हुए सवाल’ भी उठाए हैं। मगर इनके गीतों में भरपूर मिठास मिलती है। कहन और गठन दोनों स्तर पर वे कोमलता और मधुता के गीतकार हैं। यथा-

‘याद में डूबा रहा मन
तुम नहीं आये!’

अथवा-

‘अँधेरों के नाम
कर दी है वसीयत
हाशियों का शहर
जबसे हो गया है!’

इन पारम्परिक गीतों से आगे बढ़कर नवगीतकार भाई जगदीश कहते हैं,
‘भूख जहाँ दरवाजा खोले
रोशनदान रहे अनबोले
परदों की कट झील में उभरे
अन्धी दीवारें चिल्लाएँ!’

अथवा-

‘सूखी हुई झील में उभरे
गीत टिटहरी के
बिखर गये आँगन में जैसे
फूल दुपहरी के!’

ये नवगीत के बोल अपने बिम्बों के पंख खोलकर गीताकाश में शिखर छूने को बेताब हैं।
भगवत दुबे तो गीत के आचार्य हैं। ‘दधीचि’ महाकाव्य के लोकचर्चित कवि की अपनी सफल शिल्पी की पहचान है। वे गीतों में, नवगीतों में इन्द्रधनुषी संवेदना को नये रंग प्रदान कर अति मुखर होते हैं तो शिल्प के स्वर उनके कला-कौशल में कहीं कमी नहीं दिखाते। ‘गीत अष्टक’ के उनके प्रेमगीत परम्परा से हटकर कुछ नयी प्रस्तुति लेकर आते हैं। यथा-

‘छूते ही हो गयी देह कंचन
पाषाणों की
हैं कृता धड़कनें हमारे
पुलकित प्राणों की!'

अथवा-

‘न्याय माँगने गाँव हमारे
जब तेहसील गये
न्यायालय, खलिहान, खेत, घर
गहने लील गये!’

जहाँ प्रेमगीतों में समर्पण और आस्था के स्वर व्याप्त हो रहे हैं, वही सामाजिक सरोकार के नवगीत में, आंचलिकता और लोक-वेदना को विस्तार मिलता है।
‘महर्षि जमदग्नि’ जैसे सांस्कृतिक महाकाव्य के रचयिता पं. रामप्रकाश ‘अनुरागी’ के गीत इस संग्रह में अनुराग-रंजित हैं। इनके गीतों में मनुष्य की संवेदना की धार मिलती है। हृदयस्पर्शी ये गीत सहज ही पाठक के मर्म को छू लेने की क्षमता रखते हैं। यथा-

‘मैं नहीं बिछाऊँगा
अर्थों की शय्या पर
शब्द का बिछौना!’

अथवा-

‘मत छेड़ो मेरी नाव
मुक्त रहने दो!’

अथवा-
‘हम बहुत गेय हैं गाऽलो
हम बहुत गेय हैं, गा लो!’

या

‘कुछ दिन और धार में बह लें
अभी खुरदरे हैं!’

इन गीतों में कवि की संवेदना, पीड़ा और मिठास के बीज, एक ही भूमि पर बोती दिखाई देती है। ‘सृजन के क्षण मौनता के होते हैं तो गीत-सृजन की मुखरता के क्षण भाव-समाधि से दूर के होते हैं।’ ये कथन इस कवि के गीतों पर भारी पड़ेंगे।
निर्मला जोशी, जोश और होश की कवयित्री हैं। ‘दर्पण है सरिता’ इनके गीतों की लोकचर्चित रचना है। खासकर ‘संकल्प रथ’ को ऊँचाई प्रदान करने में उसके संपादक के साथ आपकी प्रमुख भूमिका रही है। प्रेम और प्रकृति-सौन्दर्य की साधिका ने अत्यन्त सुन्दर और संप्रेषणीय गीतों की रचना की है।

यथा-

अर्से बाद खुले हैं
मेरे बन्द पड़े दरवाजे
आओ हे मधुऋतु!
तुम्हारा स्वागत है!’

अथवा-

‘फिर कोई लहराया आँचल छाँव में
गीत हुए गंगाजल
मेरे गाँव में!’

इन सभी गीतों में निर्मला जी ने बाह्य-प्रकृति से मानव-प्रकृति का जो तादात्म्य स्थापित किया है, वह पारम्परिक होते हुए भी ताजगी लिये हुए है। प्रेम की पिपासा की तीव्रता और समर्पण इन गीतों की विशिष्टताएँ हैं। महादेवी की प्रेम पद्धति को साकार करने की कोशिश ही निर्मला जी के गीतकार की विशिष्टता है।
अन्त में, मुकेश श्रीवास्तव ‘अनुरागी’ के कुछ गीत बेजोड़ हैं। सच तो यह है कि किसी भी गीतकार के सभी गीत बेहतर नहीं हो सकते। कुछ ही गीत होते हैं, जिसमें गीतकार की अपनी पहचान होती है। इनका ‘आस्था के गाँव में’ गीत संग्रह प्रकाश्य है। वैज्ञानिक बिम्बों और काल्पनिक प्रतीकों के जरिये लिखे कुछ गीत विशिष्ट तथा सुन्दर बन पड़े हैं।

यथा-

‘बदल गया बस दीवारों की
ठुकी कील पर टँगा कलैण्डर!’

अथवा-

‘बिना कहे चुपचाप आ गयी
ड्राइंग रूम में धूप!’

या

‘किसको फुरसत
कौन सुनेगा
कथा-व्यथा छप्पर की?’

व्यक्तिगत पीड़ा से मुक्त मन सामाजिक सरोकार के प्रति विशेष सावधान लगता है। स्वयं से अधिक समाज की चिन्ता करने वाले कवि भेदमुक्त होकर जीने की कोशिश करते हैं।

इस प्रकार संपादक कमलकान्त सक्सेना का चुनाव प्रेमगीत की सार्थक जमीन की तलाश के लिए पूर्णतः उचित प्रतीत होता है। हालाँकि मध्यप्रदेश में और भी गीतकार होंगे, जिन्होंने सुन्दर प्रेमगीत लिखे होंगे परन्तु संपादक को अपनी दृष्टि और सीमा का भी ध्यान रखना होता है। ‘गीत अष्टक’ अपने अभियान का प्रथम पुष्प है। आशा है, भविष्य में इसके अनेक खण्ड प्रकाशित होंगे, जो गीत को नया रूप-स्वरूप देने में सफल होंगे।
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गीत- नवगीत संकलन - गीत अष्टक (प्रथम पुष्प), संपादक- कमलकांत सक्सेना, प्रकाशक- साहित्य सागर भोपाल,   प्रथम संस्करण- २०१२, मूल्य- रूपये १५०/-, पृष्ठ- १०६, समीक्षा - डॉ. ओमप्रकाश सिंह


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