रविवार, 22 मार्च 2015

कुछ तो कीजिये- मधुकर अष्ठाना

‘कुछ तो कीजिये' मधुकर अष्ठाना का सातवाँ नवगीत-संग्रह है। संग्रह के गीतों में वर्तमान की विसंगतियों पर प्रश्न-चिन्ह है। समस्त गीतों में शीर्षक गीत का भाव ही ध्वनित है। राजनीतिक विडम्बनाओं-विद्रूपताओं के सम्मुख आमजन की बेबसी, बैचेनी, छटपटाहट, न कुछ कर पाने की लाचारी, असमर्थता और तदनुरूप ‘कुछ तो कीजिये' की आतुर असहाय पुकार का भाव परितः प्रसरित है।
सचमुच आज हम जब अपनी आँख खोलकर देखते हैं तब आज का आदमी बदला-बदला नजर आता है। कहा जाता है कि मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है, किन्तु साथ ही यह भी है कि निर्माता बनने के लिए दृष्टि और चिन्तन दोनों की आवश्यकता होती है। आज की प्रजातांत्रिक व्यवस्था, जिसमें व्यवस्था कम अराजकता अधिक है, हर सुधी मनुष्य को सोचने को बाध्य करती है। राजनीति की जादूगरनी तिलोत्तमा कभी संसद में अपना रूप-जाल बिछाती है तो कभी देश में। गीतकार मधुकर अष्ठाना ने इस प्रकार की राजनीतिक विडम्बना को ‘कुछ तो कीजिये' शीर्षक गीत में इस प्रकार दिखाया है-

सूखने को आ गये हैं
नेह के झरने
कि कुछ तो कीजिये
हंस मानस के
चले हाराकिरी करने
कि कुछ तो कीजिये

हो गयी है कर्मनाशा
समय की गंगा
नहा कर जिसमें हुआ
हर रहनुमा नंगा

बिखरने की 
वेदना सबसे कही घर ने
कि कुछ तो कीजिये

दूसरे गीत की पंक्तियाँ- 'हो गयीं कितनी सयानी
इस नदी की मछलियाँ' से शुरू होती हैं। यों, मछलियाँ तो निरीह जीव हैं, किन्तु गीतकार उन्हें इतना शक्तिशाली बताता है कि घड़ियाल भी उनसे डरते हैं। हार मान चुके बगुले भी अब उनसे मित्रता करने को मजबूर हैं। बगुलों-मछलियों की मित्रता ने तबाही मचा दी है। ये मछलियाँ समुद्र में पहुँच कर भी तूफान मचा रही हैं, हजारों बदलियों को एक फूँक में उड़ा देने में ये सक्षम हैं। पूरा गीत सुनें-

हो गयीं कितनी सयानी
इस नदी की मछलियाँ।

ये चतुर इतनी हुईं
घड़ियाल भी डरने लगे
हार कर
बगुले सभी अब
मित्रता करने लगे

बचानी इनसे कठिन है
आदमी को पसलियाँ।
जाल में
फँस भी गयीं तो
फाड़ देती हैं
आँख से काजल
निडर हो
काढ़ लेती हैं
चबाने की बान जिसने भी
उठाईं उँगलियाँ।

निरर्थक इनके लिये है
प्रदर्शन-धरना सभी
नदी में रहना
अगर तो
बैर मत करना कभी

उड़ा देतीं फूँक से ही
ये हजारों बदलियाँ।

ये चलें तो सिन्धु में
तूफान थमता ही नहीं
ये उठें तो धरा पर
भूचाल रुकता ही नहीं

क्या करें बेबस जबान
झाँकती हैं बगलियाँ।
प्रश्न है, ये मछलियाँ हैं कौन? उत्तर है, ये मछलियाँ वे प्रवृत्तियाँ हैं जो मानस के समुद्र में निवास करती हैं विकसित होने के लिए इन मछलियों का संतुलित विकास एवं नियंत्रण आवश्यक है। सस्ती भावनाएँ, भोगवादी-विलासी इच्छाएँ, सभी ने मछली का रूप ले लिया है। प्रजातंत्र के इस तालाब में मछलियाँ हैं, मगर हैं और बगुले हैं। सब का जीवन-चक्र है और वह जीवन-चक्र प्रकृति का सन्तुलन है। किसी को भी अनावश्यक नहीं कहा जा सकता। वास्तव में, पश्चिम के प्रभाव के कारण सभी ने अपनी प्रकृति को भूलकर उलटा आचरण करना शुरू कर दिया है। मगर, जो कि मनुष्य की अधिकार प्रवृत्ति के द्योतक हैं, भोग की, वासना की मछली से लाचार नजर आते हैं। बगुले, जो कि हमारी प्रेक्षण शक्ति के प्रतीक हैं, साथ ही स्वार्थ प्रवृत्ति को भी द्योतित करते हैं, उनकी आपस में मित्रता हैरानी का विषय है, क्योंकि इससे केवल एक सूत्रीय कार्यक्रम ही सम्पन्न हो सकता है विविधता के अभाव से विकृति पैदा होती है। भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रवृत्तियाँ जब केवल एक ही माँग पर केन्द्रित हो जाती हैं तब विकास रुक जाता है। आज मनुष्य की सारी प्रवृत्ति भोग, स्वार्थ एवं तृष्णा में समायी हुई है। इन तीनों का संतुलन आवश्यक है ऐसे व्यक्ति किसी की भी आवाज नहीं सुन सकते। 

जब शरीर में कोशिका का वर्धन एकोन्मुखी हो जाता है तब कैंसर पैदा होता है। आज के युग में खोखलापन अधिक हो गया है, दिखावा ज्यादा है ऐसी दशा में कुछ करने की आवश्यकता है। प्रश्न है, किसको? कवि को, राजनेता को, आम नागरिक को या अधिकारी को ? मिल्टन ने एक बार इसी प्रकार के दृश्य को देखकर कहा था-"राजनेता, सांसद, अधिकारी, सैनिक सभी बरबादी की तरफ बढ़ रहे हैं, लानत है ऐसे विकास को" गीतकार इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि वह स्वयं भोक्ता है। वह मात्र गीतकार ही नहीं है। ऐसी दशा में वह लोगों के भीतर यह चेतना भरेगा कि इक्कीसवीं सदी की कैसी विडम्बना है जिसमें ‘कम्प्यूटर' ‘मुर्दों के सिर गिनते हैं।' गीतकार की यह चेतना इस तथ्य को प्रस्तुत करती है कि जो कुछ इस समय हो रहा है, वह अब आगे नहीं होना चाहिए। इस प्रकार हम पाते हैं कि मधुकर जी ने वर्तमान जीवन के भोक्ता के रूप में अनुभव करते हुए उससे उबरने की प्रेरणा दी है।
‘प्रश्न बूढ़े हो गये हैं’ गीत में गीतकार कहता है कि पुराने प्रश्न अब बूढ़े हो गये हैं।’ मनुष्य की विचारधारा इतनी बदल गयी है कि वह उस पर ध्यान देने वाला नहीं है। नगर की स्वार्थ भरी सभ्यता गाँव में रेतीली नदी की भाँति आकर फैल गयी है। लोगों के अमृतमय प्रेम-सम्बन्ध समाप्त हो गये हैं। सभी के भीतर स्वार्थ का जहर भर गया है। गिद्ध हंसों को पढ़ा रहे हैं, अर्थात लालची नेता, भ्रष्ट नेता, अनैतिक नेता पढ़े-लिखे समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं। समस्त कौवे, जिनकी दृष्टि केवल आमिष पर है, एक गत होकर आमिष भोजन कर रहे हैं, फिर भी सोई हुई जनता सब कुछ उन्हें सौंप कर प्रसन्न हो रही है-

प्रश्न बूढ़े हो गये हैं
अजन्मे
उत्तर अभी तक
पाँव नंगे
राह में जलते हुए
पत्थर अभी तक

रेत की नदियाँ
नगर से आ गयी हैं
गाँव-घर में
खो गयी
पहचान प्रकृत की
सभी डूबे जहर में

पढाते हैं गिद्ध
पढ़ते हंस
दग्धाक्षर अभी तक

एक जुट कौवे
मगर हैं
आदमी की आँख लेकर
लोग फिर भी
खुश बहुत हैं
स्वयं ही सर्वस्व देकर

राम तो कबके गये
पर रह गये
निशिचर अभी तक।

सद्वृत्तियों का लोप हो चुका है। दृश्य ही नहीं, दृष्टि में भी बदलाव आया है। आज मांगलिक ऋतम्भर संवेदनाएँ भी अनय की सहचरी बन गयी हैं-

दृश्य बदले
दृष्टि बदली
बदल आये लोग मन भी
छोड़ कर संवेदनाएँ 
अनय के
सहचर स्वजन भी

चील के हैं शब्द
गौरैया मगर
निःस्वर अभी तक

देश में परितः अराजकता का बोलबाला है। सरकार इस अराजकता को नियंत्रित करने में असमर्थ है। प्रातःकाल नाश्ते में अखबारों में आत्महत्याओं की चर्चा, रेप की चर्चा नाश्ते के रूप में परोसी जाती है। लंच में नेताओं के बड़े-बड़े घोटाले मस्तिष्क की भूख मिटाने के लिए परोसे जाते हैं ओर ‘डिनर’ में ईमान को परोसा जाता है जो जल चुका है। हम देखते हैं कि भ्रष्टाचार के अनेक नये चेहरे, अनेक नये-नये रूप, नित्य हमारे सामने प्रस्तुत हो रहे हैं-

आदमीयत के शहर में
लोग अंधे हैं
लोग घायल
तंत्र के कमजोर कंधे हैं

चंबली परिवेश
नगर मसान बाबू जी।

जा रहे हैं चाँद पर
बस्ती बसाने हम
साथ में है भूख
भ्रष्टाचार
भय का गम

देखिये मालिक हुए
दीवान बाबू जी।

नाश्ते में आत्महत्या
रेप के चर्चे
लंच में लाखों घुटाले
खेल के खर्चे

डिनर में परसा गया
ईमान बाबू जी।

भावनाओं की चिताएँ 
तेज जलती हैं
सैंकड़ों धर रूप
ये राहें बदलती हैं

हौसले, टूटे हुए
धनु-बान बाबू जी।

 संग्रह के और भी गीत हैं जिनमें राजनीतिक उथल-पुथल का निदर्शन है। सचमुच, राजनीति के छलाओं ने देश को खोखला किया है। नेताओं की स्थिति उन कीटों की है जो फसलों के रंग के साथ अपना रंग बदले हुए हैं। गीतकार ने किन्हीं-किन्हीं स्थलों पर राजनीतिक दुर्व्यवस्था के कारण जनता के जीवन को काँटों की सेज कहा है। जिस तरह से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने नवजागरण के गीतों में देश की दुर्दशा का चित्रण किया है उसी प्रकार इस कवि ने प्रजातंत्र में शोषण के विभिन्न रूपों को चित्रित किया हैं मधुकर जी ने अपने इस चित्रण में हर तरह की विडम्बनाओं का उल्लेख किया हैं इसका अन्दाज हर उस पाठक को लग सकता है जो इस संग्रह को आद्योपान्त पढ़ें आखिरकार इस गीतकार ने समूचे विरूप दृश्य को प्रस्तुत कर क्या कहना चाहा है? 

वस्तुस्थिति यह है कि इस संग्रह में मधुकर जी ने राजनीतिक तिलोत्तमा के जिस नर्तन का विश्लेषण किया है वह भ्रष्ट राजनीति के बहते हुए नाले का ऐसा विवर्तन है जहाँ पर दृश्य पर दृश्य नजर आते हैं। अच्छी बात है, राजनीति एवं राजनेता का सही चित्रण किया जाना चाहिए, किन्तु, एक बात कहने में कोई संकोच नहीं है कि अकथ कहानी को यत्र-तत्र सपाटबयानी के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है इसमें सन्देह नहीं कि बिम्बों-प्रतीकों के प्रयोग अष्ठाना जी ने किये हैं किन्तु उनकी धारणशीलता अनीति के वजन का वहन करने में असमर्थ सी लगती है। तो भी, यह कह कर नकारा नहीं जा सकता कि इसमें सपाटबयानी है या अभिव्यक्ति की सम्पूर्णता में अपूर्णता है। जब अधर्म धर्म बन जाता है, जब वासना उपासना बन जाती है, राष्ट्रीयता पद-दासी बन जाती है तब गीतकार-कथाकार-उपन्यासकार अपनी कृतियों में रोता है। उस रुलाई का भी एक संगीत है। वह संगीत इस संग्रह में स्थान-स्थान पर सुनने को मिलता है। मधुकर जी ने गाँवों को निहारा है, नगरों को देखा है, बस्तियों की छानबीन की है, साथ ही नेताओं के दोहरे व्यक्तित्व को खोला है क्या विडम्बना है इस प्रजातंत्र की कि एक महिषासुर के मरते ही अनेक महिषासुर पैदा हो जाते हैं। संहार करने वाली देवी ने भी अपने शस्त्र एवं कपाल पात्र को रख दिया है। वह भी विस्मयावसन्न भाव से इस दृश्य को देख रही है। जन-मानस के भीतर निवास करने वाली देवी विश्राम तो नहीं कर रही है किन्तु, जगत कर भी दृष्टा बनी हुई है। इस दृश्य और दृष्टा का कुतूहल कब तक विद्यमान रहेगा, कहना कठिन तो है, पर असंभव नहीं। प्रतीत होता है, समुद्र के किनारे कहीं ज्वालामुखी की तरंगे उसके उद्भेदन की सूचनाओं को लेकर तीव्र कंपनशील बन गयी हैं। ऐसी स्थिति में मधुकर जी का यह कहना कि ‘कुछ तो कीजिये’ बड़ा ही असहज एवं असहाय प्रश्न है। इस प्रश्न में विवशता का आभास है। किन्तु, यह भी जय है कि हर जन-मानस में बैठा आक्रोश अब धैर्यहीन हो रहा है और इससे एक आशा बँधती है।
समग्रतः ‘कुछ तो कीजिये’ की भाव-भूमि यही है। इस संग्रह में गीतकार मधुकर अष्ठाना ने समाज में फैली बेईमानी, आतंक, जाति का विष, शोषण की अम्लीय वर्षा तथा चरित्र के सर्वतः पतन के प्रत्यक्षीकरण का निदर्शन किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि सारे राजनीतिक दल स्वार्थों की दलदल में धँसते जा रहे हैं। यह दलदल है घोटालों का, समाज को बाँटने का। प्रजातंत्र की मशाल तो जल रही है लेकिन अराजकता का समुद्र दिनोदिन भयंकर गर्जना करता हुआ मर्यादा के तट को समेट रहा है। राम ध्यानमग्न हैं। अंधकारभरी रात्रि भयावह होती जा रही है। निशाचर बेरोक-टोक सभ्यता की नगरी में, गाँवों के आँचल में घूम रहे हैं। आज की यह विषादमयी स्थिति किसी भी रचनाकार को खेद से भर देती हैं आदमी के मस्तिष्क में प्रजातांत्रिक समायोजन बिगड़ने लगा है। श्रृगालों की आवाज, उल्लुओं की चीख, आमजन के भय को निरन्तर बढ़ा रही है।
मधुकर जी का यह नवीन प्रकाशन जहाँ एक ओर चेतना से पूर्ण है वहाँ दूसरी ओर उनकी चेतना लोक भाषा की आँच के शब्दों में पककर मधुर बन गयी है। समस्त तिक्तभावों की मार्दन अभिव्यक्ति यहाँ नहीं है किन्तु आक्रामकता का अभाव है वैसे यहाँ ‘कान्तासम्मत’ उपदेश भी नहीं है। यहां चेतना की वे चिन्गारियाँ हैं जो महलों को जला तो नहीं सकतीं, किन्तु अपने प्रकाश से सही स्थिति का बोध अवश्य कराती हैं।
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गीत- नवगीत संग्रह - कुछ तो कीजिये, रचनाकार- मधुकर अष्ठाना, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण- २०१३, मूल्य- रूपये ३५०/-, पृष्ठ-१६८ ।
समीक्षक- पारसनाथ गोवर्धन, मुखपृष्ठ सौजन्य योगेन्द्र वर्मा व्योम।

2 टिप्‍पणियां:

  1. मधुकर अष्ठाना जी की यह कृति नवगीत का जीवंत दस्तावेज है. श्री पारसनाथ गोवर्धन को शुभ कामनाएं.

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  2. मधुकर अष्ठाना जी की यह कृति नवगीत का जीवंत दस्तावेज है. श्री पारसनाथ गोवर्धन को शुभ कामनाएं.

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