शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

न जाने क्या हुआ मन को -मधुकर अष्ठाना

अष्ठाना जी के अनुराग भाव के गीतों के संग्रह ’न जाने क्या हुआ मन को‘ से रू-ब-रू होने पर पता चला कि वे केवल जीवन के तल्ख अनुभवों के गीतकार नहीं हैं, उनकी संवेदना का एक और धरातल है, जिसका परिचय उन्ही के शब्दों में यदि कहें, तो यों है-
इसमें अन्तर के/झंकृत स्वर
इसमें अनुराग-विराग भरे
शब्दों के उपवन में/रसमय जीवन के
अनुपम राग भरे
पावन श्रद्धा के/सुमन खिले
आस्था-सुरभि अविराम मिले


इन गीतों में ’संवेदित मन के दर्पण‘ के ’कल्पना-यर्थाथ करें संगम‘ वाले अक्स हैं, जिनमें अनुरक्ति के मोहक प्रसंग बार-बार रूपायित हुए हैं। रागात्मक दाम्पत्य उल्लास की छवियों को कवि मधुकर अष्ठाना ने कहीं पारम्परिक तो कहीं एकदम नवीन उद्भावनाओं से सँवारा है। एक ओर यदि ’पढ़ते रहे नयन की भाषा/सारी रात नयन‘ की जानी पहचानी उक्तियाँ हैं तो दूसरी ओर ’सोमलताओं का रस पीकर/साधें हुई रँगीली‘ जैसे एकदम सादे-टटके भाव-बिम्ब भी हैं, इन गीतों की सुरम्य वीथियों में भटकना पाठक को भा सकता है, किंतु यहाँ भी कवि का मूल यर्थाथपरक चिंतन हमें धरती की व्यथाओं, आमजीवन की व्यर्थताओं, मिथ्या मूर्तियों की प्रतिबिम्बात्मक निरर्थकताओं से रू-ब-रू रखता है। कवि कहता है-
पीर से परिचित/मनुज अदना रहा मैं
यों मनुजता के/अमर अनुयायिओं में
प्रीति के हाथों/बिका बेमोल हूँ मैं

और इस अनन्य रागात्मक जिज्ञासाओं के पल में यही मनुज अदना निर्बन्ध उन्मुक्त पंछी हो जाता है-

ये दिशाएँ भी/न मुझको बाँध पाईं
स्वयं-प्रेरित/उड़ रहा उन्मुक्त पंछी
इस आम अदने मनुष्य की जिजीविषा ऐसी है कि-
मैं सरल इतना/कि जैसे धार जल की
किंतु यह जलधार/पाहन काट देती

साधारण मनुष्य की ये दो परस्पर विरोधी संभावनायें इन गीतों में जगह-जगह अभिव्यक्ति पाती हैं। संभवतः रागात्मक होने की नियति यही है। प्रीति के हाथों बेमोल बिकने की क्षमता ही तो हमें ’धार जल की‘ बनाती है और यही रागानुभूति हममें पाहन को भी काट देने की सामर्थ्य भरती है। नई-नई बिम्बात्मक उद्भावनाओं से कवि ने अपने श्रृंगार-गीतों को मादक-सम्मोहक बनाया है। देखें तो जरा-
आज बदल डालो/कमरे के गुलदस्ते
बाहों में आओ/यूँ हीं हँसते हँसते
मेघों पर सरगम/लहरा गये

भर दो प्रिय/तृष्णाओं की सूनी माँगें
या
जैसे दे डाकिया अचानक/परदेसी की पाती

जैसे पारिजात मुकुलित हो/हरसिंगार के नीचे
जैसे कचनारों के बीच/कमल हो आँखें मींचे

ओ अनाम, अज्ञात, अजनबी/तुम अनूप बहुरंगी
उगे मधुर अनुभूति/जगे अंतर में/मूर्ति उमंगी
अनजाने का नमन/लजाये रूप में
और
अक्षय तृष्णा को/रूप सिंधु/पीयूष प्रीति देना होगा
अन्यथा तृप्ति की/चाह लिए/प्रिय पुनर्जन्म लेना होगा
जीवन हो धन्य/समर्पण में

इन गीतों में पारस्परिक श्रृंगार-कहन की ’कादम्बी शिरायें‘, ’अखुयाँयी मादक छुवनें‘, ’प्रीति के प्रगल्भ सिलसिले‘, ’बदन मनसिजी भँवर में‘ और ’तृप्तियाँ अबोल‘ जैसी सार्थक अभिव्यंजनाओं के साथ प्रिया अनुपस्थित के प्रसंगों के बड़े ही मनभावन चित्र एकदम नई बिम्बाकृतियों में प्रस्तुत हुए हैं।

एक चित्र देखें इस विरह भंगिमा का-
चादर मैली/कपड़े गंदे/कमरा कूड़ाघर
देखूँ जिधर/तुम्हीं ही तुम/मुझको आने लगीं नजर
गैस खत्म है/डिब्बे खाली/मुश्किल हुई चाय की प्याली
सूख रहे/गमलों के पौधे/ढूढ रहे हैं अपना माली

हाल नहीं पूछते पड़ोसी/शुरू हो गई/कानाफूसी

गैरों की क्या बात/मुझे तो/अपनी नहीं खबर
सम्मुख रहकर/चित्र तुम्हारा/दफ्तर से आ/टूटा-हारा
कर लेता है/बेचारा मन/वही-वही बातें दोबारा
पहली ट्रेन मिले जो तुमको/ आ जाओ प्रियवर

ग्रह रति नवगीतात्मक कहन का यह सम्पूर्ण चित्र कितने-कितने और कहाँ कहाँ संकेत निर्देशित करता है, कहने की आवश्यकता नहीं। नवगीत में श्रृंगार-भाव की यथार्थ परक-सृष्टि कैसे होती है, इसका उपर्युक्त गीतांश एक उत्कृष्ट उदाहरण है। विशुद्ध सात्विक गृहस्थ मन की सहज सहानुभूति की आख्या जिस सार्थक और अनूठे ढंग से हो पाई है, इस गीत में उस ढंग से अन्य किसी गीत में नहीं। बिम्बों की यह ताजगी इस गीत को संग्रह की उपलब्धि रचना बनाता है। एक अन्य गीत में कवि ने ’गये दिन फिर नहीं आये‘ के स्मृति दंशों का अंकन बड़े सशक्त ढंग से यों किया है-
समय कितना हुआ निर्बल/न होता प्रश्न कोई हल

कहाँ मथुरा/कहाँ गोकुल/कहाँ निधिकुंज/वृंदावन
सिसकती रह गई राधा/छिपाये पीर/बृजनंदन
डुबाये कर्म अंतस्तल/हुये निस्संग विषयानल
समय क्या-क्या न करवाये

’निस्संग विषयानल‘ वाले इस गीतांश में जिस ’न होता कोई प्रश्न हल‘ हो इंगित किया गया है, उसी के सम्पूरक संकेत हैं इस गीतांश में-
उड़ गई अनुरक्ति/दीपक वासनाओं के बुझे हैं
स्वार्थी सम्बन्ध सारे/लग रहे अब/लिजलिजे हैं

कौन है जो/साधना-श्रम-त्याग का/कुछ मूल्य आँके
इस अंधेरे में/पुनःविश्वास की/कुछ ज्योति टाँके
पर नहीं इस चाह का/आधार कोई

अब मरुस्थल की उदासी/रेत वाली आँधियाँ हैं
है जहाँ मस्तक/वहीं नागों भरी/कुछ बाँबियाँ हैं

तोड़ना बंधन/मिटा देना गरल की बस्तियों को
वेदनाओं के तले/संभव नहीं/इन अस्थियों को
डूबने को नाव/अब तो व्यर्थ है/पतवार कोई

अर्थाभास से यह गीत जीवन की तमाम निरर्थकताओं को परिभाषित करता है। इसमें स्वार्थी होते सम्बंधों की लिजलिजी अनुभूति है, साधना-श्रम-त्याग के अवमूल्यन की अपसांस्कृतिक दृष्टि से उपजी व्यथा है, मरुस्थल और रेत वाली आँधियों के बीच नागों भरी बाँबियों की मनःस्थिति की त्रासक संचेतना है और पतवार-बिन डूबती नाव की व्यर्थता का एहसास है। उम्र की ढलान की व्यक्तिपरक वेदना का संकेत तो पूरे गीत में व्याप्त है। और इसी मनःस्थिति से उपजा है विरक्ति और निर्वेद का यह गीतांश-
वो छलकते वारुणी के/कलश मत मुझको रिझाओ
मत नयन की कोर से/संकल्प का हिमगिरि गलाओ

बंद कर लो द्वार मन के/छोड़ दो अब यज्ञ तन के
दृष्टि में भरकर चितायें/स्वप्न देखो मात्र वन के
मरुस्थल में भावना का/कुनमुनाना भी मना है
ओ अजन्ता की गुफाओं/ओ मुकुल रति की ऋचाओं
प्रज्जवलित मेरी शिराओं की/शमित हो कामनाओं

और अन्ततः ’आयु के इस मोड़ पर‘ उपजे इस विराग की परिणति हुई है एक निर्वैयक्तिक आस्था में जिसमें एक समष्टिगत करुणा का बोध निहित है-

विलय को लय में न बाँधों/विषय को इतिहास दे दो
दिशि-दिशा का बाँट कर दुख/नियति का विश्वास दे दो

विषय को ’इतिहास‘ दे देने का यह आग्रह दुख बाँटने के करुणा भाव से जुड़कर ही नियति का विश्वास बन पाता है। यही है राग के विराग में परिवर्तित होने की आस्तिक प्रक्रिया। वस्तुतः विराग राग का ही विशिष्ट रूप है। यह रूपान्तरण तभी संभव है, जब राग, अनुराग को उसके सम्पूर्ण अनुभावों के साथ पूरी शिद्दत के साथ जिया जाये। ’न जाने क्या हुआ मन को‘ का कवि-गायक श्रृंगार को पूरी आस्था से स्वीकारता है, जीता है और आखिर में उस रागात्मक जिजीविषा को व्यक्तिगत सम्मोहों से अलग कर समष्टि के विशिष्ट राग-भाव में परिणत कर देता है। यही इस संकलन के गीतों का मूल तत्व है। अन्तरंग वासनाओं के मोहन अर्थों से शुरू होकर इस संग्रह की गीत-यात्रा हमें कामायनी के श्रद्धा भाव तक पहुँचा देती है, यही इस संग्रह की उपलब्धि है। कथ्य और कहन, दोनों स्तरों पर इन गीतों की पहुँच अधिकांशतः पारम्परिक है, फिर भी ये गीत हमें जगह-जगह फिलवक्त के सरोकारों से संकेतार्थों से जोड़ते चलते हैं, यह भी इस संग्रह की उपलब्धि है। समग्रतः कवि मधुकर अष्ठाना के इन गीतों को बाँचना मेरे लिए एक सुखद अनुभव रहा। वही सुखद अनुभव सुधी पाठकों का हो, यही मेरी कामना है। रागात्मक सुखानुभूति के ये क्षण सभी के हों।
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नवगीत संग्रह- न जाने क्या हुआ मन को, रचनाकार- मधुकर अष्ठाना, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण-२००६ , मूल्य-रू. २००/-, पृष्ठ-१२०, समीक्षा लेखक- कुमार रवीन्द्र।

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