सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

जो हुआ तुम पर हुआ हम पर हुआ -रमाकान्त

हिन्दी गीत की रचनाधार्मिकता को संकल्प, धर्म-प्राण और टेक की तरह अपना कर चलने वाले आज के कुछ चर्चित एवं रेखांकित रचनाकारों के साथ एक नाम और जोड़ने की सिफारिश करता हूँ अपने गीत प्रेमी पाठकों से। यह नाम है रमाकान्त। रमाकान्त रहने वाले बैसवाड़े के हैं। जगह का नाम है डलमऊ। डलमऊ रायबरेली जिले में है। साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से डलमऊ की गरिमा जन-जन में वन्दनीय और अभिनन्दनीय बन गयी है। वंशज होने के नाते रमाकान्त पूरा-पूरा अधिकार रखते हैं। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि इनकी पाण्डुलिपि मैं पढ़ चुका हूँ। इसलिए मैं पूरे विश्वास के साथ यह बात कह रहा हूँ कि जब आप यह गीत पढ़ेंगे तो स्वयं वैसा ही सोचेंगे जैसा मैं आज सोच रहा हूँ। अपने पाठकों के सामने इसी बहाने कुछ अच्छा परसने का सौभाग्य मिल रहा है इसके लिए मैं आभारी हूँ इन पंक्तियों का -
नया आदमी
उगा जा रहा
ऊपर कंधो के

ये पंक्तियाँ इसी संकलन की हैं। पहला गीत संकलन है रमाकान्त का। लेकिन लचर रमाकान्त का नहीं प्रौढ़ रमाकान्त का। अपना सोच, दृष्टि और कहानियों के बीच साँस लेती जिजीविषा के धनी हैं रमाकान्त। जहाँ देखते है बड़ी बारीकी से देखते है और बड़ी गहराई में देखते हैं। औसत समाज रमाकान्त की जिन्दगी है। इसीलिए रमाकान्त कविता की जमीन पर विस्तार में दिखाई देते हैं। रमाकान्त अपने इसी संसार मे रीझते भी हैं, खीझते भी हैं, सीझते भी हैं, और जब सीझते हैं रमाकान्त तो अपने अस्तित्व को भूल जाते हैं। रागमय अनुरागमय जैसी स्थितियों-परिस्थितियों में भी कविता यहाँ प्रयागमय हो गयी है। यह रमाकान्त की ही पैठ का परिणाम है। रमाकान्त निरन्तर जागरूक दिखाई देते हैं अपनी रचनाधर्मिता में। ऐसा इसलिए भी है कि इमरजेन्सी के तत्काल बाद से आये सामाजिक राजनीतिक बदलाव ने हमें दिया कम लिया ज्यादा। शरीफ, संवेदनशील, ईमानदार और संघर्ष की प्रेरणा देने वाला बुद्धिजीवी देखकर हक्का-बक्का है- इस बदलाव को कहें तो क्या कहें, और करें तो क्या करें। इक्के-दुक्के में बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है वह दिखाई दे रहा है पचास-साठ प्रतिशत में। इसलिए उस बदलाव को रमाकान्त रेखांकित करते चलते हैं ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी यह सनद रहे कि हम अपनी किशोर पीढ़ी को सही दिशा नहीं दे सके क्योंकि इस बदलाव में बहुत बड़ा भटकाव भी समाया हुआ है और ऐसे भटकाव से देश, समाज को बचाकर ले चलने का काम रचनाकारों ने खूब किया है और स्वागत योग्य किया है। केवल उपलब्धियों और प्रयोगों की चर्चा तक ही अपने को सीमित नहीं रखता रचनाकार। वह तो सबसे पहले अपने भीतर झाँकता है। भीतर झाँकना बहुत मायने रखता है जो बहुत पानीदार होता है, कैड़ेदार होता है वह बहुत उदार और सहिष्णु होता है और कविता इसी उदारता और सहिष्णुता के बीच की अवस्था है। इतना विस्तार मिलता है, इतना विस्तार मिलता है कि आर-पार की सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं तब व्यक्ति नहीं बोलता, बोलता है उसका अन्तःकरणः-
हम सयाने
तुम सयाने
हाल घर का कौन जाने
लड़कियाँ बनने लगी हैं
नदी सी बहने लगी हैं,
निकल जाती हैं
हर इक दिन
साग - सब्जी के बहाने

 साग-सब्जी के बहाने लड़कियों का घर से निकलना अभी हाल ही शुरू हुआ है। इसके पीछे बहुत बड़ा दर्द है, संघर्ष से भरा - भरा दर्द। सारा घर कमाता है तब सांस चलती, पेट भरता है, गीत फूटता है, हंसी लौटती है। समय की यह धार संघर्ष को कसौटी पर कसती चलती है और इससे भी बड़ी विसंगति यह देखिए कि हमारी सारी आत्मनिर्भरता हवा हो गयी। हम बाजार से जुड़े हैं लेकिन उत्पादन से कट चुके हैं। इसलिए जो खाली सो हाथ बटाये जैसी परिस्थिति को जीता है, वह उन्मुक्त भाव से जीता है। खुली हवा में सांस लेता है, दाएँ-बाएँ देखकर चलता है फिर भी कन्धे छू ही जाते हैं। साग-सब्जी का बहाना इसी दरवाजे की कुंजी है। यह दरवाजा खुलता है तो विस्तार मिलता है मन को दृष्टि को, आदमी को, आदमी के समाज को।

 रमाकान्त केवल कवि ही नहीं हैं एक हैरान परेशान किसान भी हैं। वह आज के मजदूर और किसान को गौर से देख रहे हैं। किसान छटपटा रहा है वह एक तरफ अपनी खेती देख रहा है। दूसरी तरफ अपनी जरूरतें। मजदूर गांव से भाग रहा है। गांव में काम नहीं है। मजबूरी में आदमी भाग रहा है इस दलदल से बाहर -
सबर नहीं होती कुशवाहा
छोड़ो खेती-पाती
चलो शहर में दौड़ो घूमो
यही कहे इमराती
अच्छा है चण्डीगढ़ जाना
दिल्ली में मुस्काना
चौपाटी का दर्शन करते
जरा नहीं शरमाना
घबराने की बात नहीं है
लांघो सागर जाती
 
 लेकिन आम आदमी का संकट रमाकान्त को हर जगह दिखाई देता है क्या गांव, क्या कस्बा और क्या नगर महानगर। कहीं रोटी के लाले हैं कहीं अपच की स्थिति है। अपने को जवान बनाये जाने का उद्देश्य बदल गया है। अंतराल भरने की जगह और गहरा गया है। और यह साजिशन हो रहा है, डंके की चोट पर हो रहा है - रचनाकार सोच रहा है, देख रहा है और अंधेरे में रोशनी भी भर रहा है -
आम आदमी तरस रहा है
दाना पानी को
बड़ा आदमी मरते दम तक
रखे जवानी को
 
और मजे की बात यह है कि जहाँ अक्षम और असमर्थ में भौतिक सुख भोगने की उत्कट अभिलाषा - जिजीविषा बनी हुई है वहीं, आतंक फैलाकर जिन्दगी की हुंकारी सुनने वाले से सीधा सवाल करने का हौसला भी बना हुआ है। ऐसे हौसले का मैं स्वागत करता हूँ क्योंकि यह स्वागत योग्य है। अमानुष को रमाकान्त का मानुष देख रहा है -
तुम क्षत्रप
बंदूकों के साये में
जीते हो
जाने कैसे
खुली हवा में
पनी पीते हो
या फिर यह कहना किः-
सिर्फ वही जानें जिनके हाथों में सत्ता है
ताबूतों के बदले कितना मिलता भत्ता है
ताबूतों में भरी देह को वे क्या जानेंगे
सोते के सिरहाने ही बंदूके तानेंगे
बंदूकों में भरी नहीं गोली अलबत्ता है
 
जिन्दगी कहाँ सांस ले रही है, कहाँ करवट बदल रही है, और कहाँ ठहरी हुई है, रूकी हुई है इनत माम रंगों में जिन्दगी दिखाई दे रही है। जहाँ जिन्दगी रूकी हुई दिखती है वहाँ दिखती है एक ऐसी हलचल और उथल-पुथल जो अपने भीतर एक संदेश छिपाए हुए है-
हवा चली
कुछ लगा कि जैसे
रूकी हुई जिन्दगी चली
जाने कब से यहीं हवायें
भूल गयी थी आना
दहन-तपन की पृष्ठभूमि ही
बनती रही बहाना
 
 समाधान का संकट चारो तरफ हैं क्योंकि सवाल सबके पास हैं। समाधान किसी-किसी के पास है। घटनाएँ बदस्तूर घट रही हैं, तेजी से घट रही है और एक दिन में कई-कई घटनाएँ घट रही हैं और सभी घटनाएँ आदमी को दहलाकर रख दे रही हैं। तब आदमी के पास सीमाएँ थीं। आदमी अपनी सीमाओं में सुरक्षित था। आज उसकी सीमाएँ बुरी तरह से और पूरी तरह से टूट चुकी हैं। सीमा विहीन आदमी मर्यादा विहीन आचरण पर उतर आया हैः-
समाधान कुछ नहीं
सिर्फ घटनाएँ होती हैं
घटनाएँ अक्सर ही
दाएँ-बाएँ होती हैं
अलग किस्म के सुख की खातिर
बदल गयी है यारी
जिन्दा नहीं रहे वह काँटा
दे दी गयी सुपारी
अब कुछ नहीं आदमी की
सीमाएँ होती हैं
 
यह सीमा विहीन आदमी आँख मूंदकर भागता हुआ टकराता हुआ दिखाई दे रहा है। उसे जहाँ सुरक्षित होना था वहीं वह सबसे ज्यादा असुरक्षित हुआ है। न उसके पास मूल्य है न आदर्श, न आस्था न विश्वास, न संकल्प। उसके पास है भय, आतंक, बर्बरता, असहिष्णुता, अमानवीयता और असमर्थता। ये आज के औसत आदमी की नई सीमाएँ हैं, इन्हीं सीमाओं में वह जी रहा है। आदमी के इस संकट को अपना संकट मानकर जीने वालों की संख्या भी बहुत कम रह गयी है। जो जी रहे हैं वे गिने चुने हैं। लेकिन हैं और सक्रिय हैं। गलत के खिलाफ और सही के समर्थन में बोल रहे हैं, लिख रहे हैं, जूझ रहे हैं। ऐसे जुझारू तेवर के चलते विसंगतियों विडंबनाओं का पर्दाफाश हो रहा है। इतने के बावजूद बहुतों की आंखें नहीं खुल रही हैं। वे अपने राग-रंग में भूले हैं, चादर ताने सो रहे हैं और सत्ता का चरम सुख भोग रहे हैं। देश समाज जंगल की तरह जल रहा है और जंगल के राजा अपनी-अपनी खोह में जश्न मना रहे हैं-
जंगल में आग लगी है पर
शेरों को नहीं खबर
अपनी ही खोहों में
जश्न मनाते है रहबर
 
रमाकान्त अंधेर और अंधियारा दोनों का दबाव महसूस कर रहे हैं। इसलिए छटपटा रहे हैं और जी भर जूझ रहे हैं। मैं ऐसे रमाकान्त को अपने पाठकों से जोड़ रहा हूँ। और मुझे पूरा विश्वास है कि जब यह रचनाएँ एक साथ पाठकों के बीच पहुंचे भी तो पाठक निश्चित ही मेरी बातों से सहमत होंगे। क्योंकि रमाकान्त जिस नये पन के साथ भीड़ चीरते हुए आगे बढ़ रहे हैं और जिस ढंग से अपनी बात रख रहे हैं वह नयापन, वह ढँग सचमुच सराहनीय है, क्योंकि रमाकान्त पिछले कुछ वर्षों से एक साहित्यिक पत्रिका ’’यदि‘‘ का प्रकाशन एवं सम्पादन भी कर रहे हैं। डलमऊ जैसी छोटी सी जगह में रहते हुए रमाकान्त का यह प्रयोग और प्रयास निश्चित ही व्यर्थ नहीं जायेगा। एक भरपूर सार्थक कदम साबित होगा।
 
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पुस्तक- जो हुआ तुम पर हुआ हम पर हुआ, रचनाकार- रमाकांत, प्रकाशक- प्रभु प्रकाशन, रायबरेली, प्रथम संस्करण, मूल्य-रू. १२०/-, पृष्ठ-१०३, ISBN-९३३५२१४९१३, समीक्षा लेखक- कैलाश गौतम, प्रथम संस्करण-२००७

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