बुधवार, 25 जनवरी 2012

नवगीत एकादश- सं. भारतेंदु मिश्र

हिन्दी की एक समर्थ विधा पारम्परिक गीत को नकारते हुए गत दशकों से नवगीत साहित्य के क्षितिज पर उभरा है और वह भी तेजी से, इसमें दो मत नहीं कि कथ्य की ताजगी और शब्दों के चमत्कार ने नवगीत को अपनी जगह कायम करने का अवसर दिया है। शहरी संत्रास और आम आदमी के दर्द, कुंठा, विफलता, नैराश्य और आगामी कल को नवगीत में पूरी ताजगी के साथ बयान करने की कोशिश की जाती है। इसने निश्चय ही अच्छे हस्ताक्षर दिए हैं। स्व. डॉ. शम्भुनाथ सिंह इसके प्रवर्तक माने जाते हैं। शब्द सामर्थ्य और कथ्य का ऐन्द्रजालिक स्वरूप ही नवगीत को प्राणवत्ता प्रदान करता है।

नवगीत एक ओर जहाँ मानवीय रिश्तों की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है वहीं दूसरी ओर समसामयिक यथार्थ और आधुनिकता व आधुनिकोत्तर बोध की अभिव्यक्ति हैं। इस संकलन की रचनाओं में ये तीनो स्वर विद्यमान हैं। यह अलग बात है कि हर कविता का अपना अलग तेवर है।

नवगीत के समवेत संकलनों का प्रकाशन इस विधा के अस्तित्व में आने के साथ ही हो गया था। सन १९५८ में गीतांगिनी, १९६४ में कविता चौसठ, १९६९ में पाँच जोड़ बाँसुरी के अलावा नवें दशक में प्रकाशित हुए नवगीत दशक व नवगीत अर्धशती सहित कई समवेत संकलन आये है परन्तु सभी की अपनी एक सीमा थी। यह सीमा हर उस विधा के साथ होती है जो रचनात्मक दृष्टि से समृद्ध होती है। आज किसी भी विधा के किसी भी समवेत संकलन को विधा का प्रतिनिधि संकलन नहीं कहा जा सकता उसे भी नहीं जो प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं। अच्छी बात ये है कि कवि संपादक डॉ. भारतेन्दु मिश्र ने ऐसे किसी प्रतिनिधित्व का दावा नहीं किया है। हाँ उन्होने भोजपुरी, रुहेली, बुन्देली, अवधी व हरियाणवी लोक जीवन व लोक मानस से जुडे नवगीतकारों को एक स्थान पर एकत्रित किया है। इस संकलन में ग्यारह नवगीतकारों के ११० नवगीत संकलित हैं। ये नवगीतकार हैं- जगदीश श्रीवास्तव, पाल भसीन, राधेश्याम बन्धु, राधेश्याम शुक्ल, हरिशंकर सक्सेना, श्यामनारायण मिश्र, सुरेन्द्र कुमार पाठक, भोलानाथ, भारतेन्दु मिश्र, शशिकांत गीते और शरद सिंह।

विशेषता यह है कि इसमें सागर की सुश्री शरद सिंह एकमात्र महिला गीतकार हैं और उनकी पहचान समूचे मध्य प्रदेश में नवगीतकार के रूप में अनूठी है। वह प्रदेश से नवगीत की एकमात्र समर्थ महिला हस्ताक्षर हैं। शरद के गीतों में आत्मकथ्य का प्रगल्भ स्वरूप अगर रूपायित हुआ है तो वह उस दर्द को जीती हैं जो आम आदमी का है जैसे-
बीत गये जाने कितने दिन
धूप ओढ़ते धूप बिछाते
पैरों के छाले भी फूटे
होठों के ताले भी टूटे
देर नहीं लगती
भाई जी।

भाई जी! सम्बोधन में आत्मीयता का बोध होता है तो विफलता से उपजी पीड़ा की आहट भी आती है। उनके दो अन्य गीतों में बस्तर के आदिम जीवन से जुड़ने जोड़ने का पूरा प्रयास हुआ है। फाँके की बारी में शरद सिंह का नवगीतकार बहिर्मुखी होकर अन्दर झाँकता है अन्यथा ये पंक्तियाँ अजन्मी रह जातीं-
हफ्ते में एक दिन
फाँके की बारी
दैनिक वेतन भोगी
छुट्टी इतवारी
जोड़ जोड़ दुखते हैं
यंत्रो के साथ जुटे चुप ही तो रहना है
चाहे बिवाई फटे
कट कट कर मिलती है
शाम को दिहाड़ी।

आज के ताजे हालातों का यह सही निरूपण कहा जा सकता है। संग्रह में श्यामनारायण मिश्र अपनी कल्पनाशीलता और बिंब प्रतीकों के लिए सर्वपरिचित हैं उनका कथ्य लोक संस्कृति और लोक जीवन से जुड़ने का अनूठा माद्दा रखता है। एक गीत में उनकी बानगी है-
महानगर में मैं उदास
तुम कसबे में ऊबीं
मै तो अपनी आग जला
दुख अपने तुम डूबीं
अमृत जन्म मिले शायद
इस घोर जन्म के बाद
मन भर सौ अवसाद।

श्यामनारायण मिश्र ने प्रकृति के अनेक चित्र अपने गीतों में उकेरे हैं जिनको संकलित गीतों में जगह नहीं मिली। बहरहाल निश्चय ही इस संग्रह में उनकी अपनी पहचान है।
इसी क्रम में भोलानाथ एक उल्लेखनीय हस्ताक्षर हैं यथार्थ के धरातल पर उनका यह गीत सचेत करता है-
प्यास भीतर की बुझा पाती नहीं
गंगाजली यह काँच की
आग की लपटें दफन हैं
एक मुट्ठी रेत में
मेटकर सोना उगी हैं
नागफनियाँ खेत में
शौर्य का साहस जुटा पाती नहीं
मुँह मंडली यह पाँच की।
काव्य की यह सफाई उनके अन्य गीतों में भी दृष्टव्य है।

राधेश्याम बन्धु के गीतों से अदम्य जिजीविषा नजर आती है और चेतावनी का स्वर भी कि
जो अभी तक मौन थे वे शब्द बोलेंगे
हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे।
सत्ता की विसंगतियो और त्रासदियो का विश्लेषण करते हुए चलते हैं जो उन्हें कहीं कहीं उदास करता नजर आता है।

जगदीश श्रीवास्तव के नवगीतों में संघर्ष का भाव प्रबल है तो पाल भसीन के गीतों में संघर्ष के साथ साथ संवेदना में आज के व्यक्तित्व का संकट-स्वप्नभंग की स्थिति जैसी त्रासदियाँ भी हैं जो बहुत कम गीतकारों के यहाँ हैं। इस लिहाज से पाल भसीन की रचनाओं का फलक और विस्तृत हो जाता है।

हरिशंकर सक्सेना, श्यामनारायण मिश्र, सुरेन्द्र पाठक, भोलानाथ, भारतेन्दु मिश्र, शशिकांत गीते और शरद सिंह इन सभी के गीतों में सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था की चक्की में पिसते व्यक्ति की पीड़ा ही अधिक मुखरित हुई है और यही बात इस समवेत संकलन को एक सूत्र से बाँधती भी है।

नवगीतकार भारतेन्दु मिश्र का यह कथन सही लगता है कि नवगीत में छन्द है, लालित्य है, उक्ति वैचित्र्य है, युगबोध है फिर भी उसका विरोध किया जा रहा है। उसी प्रकार भूमिका में डॉ. राजेन्द्र गौतम की यह बात अपनी जगह बानगी है कि गीत समकालीन कविता में अविच्छिन्न है। उसकी अपनी विशिष्ट मुद्रा है, अपना व्यक्तित्व है-पर न तो वह कविता से अलग कुछ है और नहीं वह झरे पत्ते की तरह विगत महत्व की विधा है।

इस संकलन की रचनाओं के साथ एक अच्छी बात यह भी है कि इनमें प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक नवीनता लिए हुए हैं। चूँकि संपादक ने रचनाओं के चयन में कठोरता बरती है इसलिए संकलन में अच्छी रचनाएँ ही आयी हैं। जाहिर है कि बहुत से जाने पहचाने नाम इसमें नहीं हैं और यह कोई अवगुण नहीं है। प्रत्येक संपादक की अपनी दृष्टि और पँहुच होती है। वह उसी दायरे में चयन करता है। फिर किसी एक संकलन में आज सभी मौजूदा गीतकारों को शामिल कर पाना सम्भव नहीं है। डॉ. राजेन्द्र गौतम द्वारा लिखित संग्रह की भूमिका अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। कृति का मुद्रण लुभावना है और रचनाएँ स्तरीय हैं।
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पुस्तक-नवगीत ‘एकादश (संकलन)', संपादक- भारदेन्दु मिश्र, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, १/२० महरौली, नई दिल्ली- नई दिल्ली-११००३०, प्रथम संस्करण-१९९४ ई०, मूल्य-रू. ७५/-, पृष्ठ-१३५, समीक्षा लेखक- वेदप्रकाश भारद्वाज एवं राम अधीर

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